Tuesday, October 6, 2009

ज्योतिष अर्थात अध्यात्म_2

पिछली पोस्ट से जारी...

इस संबंध में अब वैज्ञानिकों को भी शक होने लगा है कि सूरज जब अपनी चरम अवस्था में जाता है तब पृथ्वी पर कम से कम बीमारियां होती हैं। और जब सूरज अपने उतार पर होता है तब पृथ्वी पर सर्वाधिक बीमारियां होती हैं। पृथ्वी पर पैंतालीस साल बीमारियों के होते हैं और पैंतालीस साल कम बीमारियों के होते हैं। नील ठीक चार हजार वर्षों में हर नब्बे वर्ष में इसी तरह जवान और बूढ़ी होती रही है। जब सूरज जवान होता है तो नील में सर्वाधिक पानी होता है। वह पैंतालीस वर्ष तक उसमें पानी बढ़ता चला जाता है। और जब सूरज ढलने लगता है, बूढ़ा होने लगता है, तो नील का पानी नीचे गिरता चला जाता है, वह शिथिल होने लगती है और बूढ़ी हो जाती है। आदमी इस विराट जगत में कुछ अलग-थलग नहीं है। इस सबका इकट्ठा जोड़ है। अब तक हमने जो भी श्रेष्ठतम घड़ियां बनाई हैं वे कोई भी उतनी टु दि टाइम, उतना ठीक से समय नहीं बतातीं जितनी पृथ्वी बताती है। पृथ्वी अपनी कील पर तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्कर पूरा करती है। उसी के आधार पर चौबीस घंटे का हमने हिसाब तैयार किया हुआ है और हमने घड़ी बनाई हुई है। और पृथ्वी काफी बड़ी चीज है। अपनी कील पर वह ठीक तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्र पूरा करती है। और अब तक कभी भी ऐसा नहीं समझा गया था कि पृथ्वी कभी भी भूल करती है एक सेकेंड की भी। लेकिन कारण कुल इतना था कि हमारे पास जांचने के बहुत ठीक उपाय नहीं थे। और हमने साधारण जांच की थी। लेकिन जब नब्बे वर्ष का वर्तुल पूरा होता है सूर्य का तो पृथ्वी की घड़ी एकदम डगमगा जाती है। उस क्षण में पृथ्वी ठीक अपना वर्तुल पूरा नहीं कर पाती। ग्यारह वर्ष में जब सूरज पर उत्पात होता है तब भी पृथ्वी डगमगा जाती है, उसकी घड़ी गड़बड़ हो जाती है। जब भी पृथ्वी रोज अपनी यात्रा में नये-नये प्रभावों के अंतर्गत आती है, जब भी कोई नया प्रभाव, कोई नया कास्मिक इनफ्लुएंस, कोई महातारा करीब हो जाता है--और करीब का मतलब, इस महा आकाश में बहुत दूर होने पर भी चीजें बहुत करीब हैं--जरा सा करीब आ जाता है। हमारी भाषा बहुत समर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम कहते हैं जरा सा करीब आ जाता है तो हम सोचते हैं कि शायद जैसे हमारे पास कोई आदमी आ गया। नहीं, फासले बहुत बड़े हैं। उन फासलों में जरा सा अंतर पड़ जाता है, जो कि हमें कहीं पता भी नहीं चलेगा, तो भी पृथ्वी की कील डगमगा जाती है। पृथ्वी को हिलाने के लिए बड़ी शक्ति की जरूरत है--इंच भर हिलाने के लिए भी। तो महाशक्तियां जब गुजरती हैं पृथ्वी के पास से, तभी वह हिल पाती है। लेकिन वे महाशक्तियां जब पृथ्वी के पास से गुजरती हैं तो हमारे पास से भी गुजरती हैं। और ऐसा नहीं हो सकता कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर लगे हुए वृक्ष कंपित न हों। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर जीता और चलता हुआ मनुष्य कंपित न हो। सब कंप जाता है। लेकिन कंपन इतने सूक्ष्म हैं कि हमारे पास कोई उपकरण नहीं थे अब तक कि हम जांच करते कि पृथ्वी कंप जाती है। लेकिन अब तो उपकरण हैं। सेकेंड के हजारवें हिस्से में भी कंपन होता है तो हम पकड़ लेते हैं। लेकिन आदमी के कंपन को पकड़ने के उपकरण अभी भी हमारे पास नहीं हैं। वह मामला और भी सूक्ष्म है। आदमी इतना सूक्ष्म है, और होना जरूरी है, अन्यथा जीना मुश्किल हो जाए। अगर चौबीस घंटे आपको चारों तरफ के प्रभावों का पता चलता रहे तो आप जी न पाएं। आप जी सकते हैं तभी जब कि आपको आस-पास के प्रभावों का कोई पता नहीं चलता। एक और नियम है। वह नियम यह है कि न तो हमें अपनी शक्ति से छोटे प्रभावों का पता चलता है और न अपनी शक्ति से बड़े प्रभावों का पता चलता है। हमारे प्रभाव के पता चलने का एक दायरा है। जैसे समझ लें कि बुखार चढ़ता है, तो अट्ठानबे डिग्री हमारी एक सीमा है। और एक सौ दस डिग्री हमारी दूसरी सीमा है। बारह डिग्री में हम जीते हैं। नब्बे डिग्री नीचे गिर जाए तापमान तो हम समाप्त हो जाते हैं। उधर एक सौ दस डिग्री के बाहर चला जाए तो हम समाप्त हो जाते हैं। लेकिन क्या आप समझते हैं, दुनिया में गर्मी बारह डिग्रियों की ही है? आदमी बारह डिग्री के भीतर जीता है। दोनों सीमाओं के इधर-उधर गया कि खो जाएगा। उसका एक बैलेंस है, अट्ठानबे और एक सौ दस के बीच में उसको अपने को सम्हाले रखना है। ठीक ऐसा बैलेंस सब जगह है। मैं आपसे बोल रहा हूं, आप सुन रहे हैं। अगर मैं बहुत धीमे बोलूं तो ऐसी जगह आ सकती है कि मैं बोलूं और आप न सुन पाएं। लेकिन यह आपको खयाल में आ जाएगा कि बहुत धीमे बोला जाए तो सुनाई नहीं पड़ेगा, लेकिन आपको यह खयाल में न आएगा कि इतने जोर से बोला जाए कि आप न सुन पाएं। तो आपको कठिन लगेगा, क्योंकि जोर से बोलेंगे तब तो सुनाई पड़ेगा ही। नहीं, वैज्ञानिक कहते हैं, हमारे सुनने की भी डिग्री है। उससे नीचे भी हम नहीं सुन पाते, उसके ऊपर भी हम नहीं सुन पाते। हमारे आस-पास भयंकर आवाजें गुजर रही हैं। लेकिन हम सुन नहीं पाते। एक तारा टूटता है आकाश में, कोई नया ग्रह निर्मित होता है या बिखरता है, तो भयंकर गर्जना वाली आवाजें हमारे चारों तरफ से गुजरती हैं। अगर हम उनको सुन पाएं तो हम तत्काल बहरे हो जाएं। लेकिन हम सुरक्षित हैं, क्योंकि हमारे कान सीमा में ही सुनते हैं। जो सूक्ष्म है उसको भी नहीं सुनते, जो विराट है उसको भी नहीं सुनते। एक दायरा है, बस उतने को सुन लेते हैं। देखने के मामले में भी हमारी वही सीमा है। हमारी सभी इंद्रियां एक दायरे के भीतर हैं, न उसके ऊपर, न उसके नीचे। इसीलिए आपका कुत्ता है, वह आपसे ज्यादा सूंघ लेता है। उसका दायरा सूंघने का आपसे बड़ा है। जो आप नहीं सूंघ पाते, कुत्ता सूंघ लेता है। जो आप नहीं सुन पाते, आपका घोड़ा सुन लेता है। उसके सुनने का दायरा आपसे बड़ा है। एक-डेढ़ मील दूर सिंह आ जाए तो घोड़ा चौंक कर खड़ा हो जाता है। डेढ़ मील के फासले पर उसे गंध आती है। आपको कुछ पता नहीं चलता। अगर आपको सारी गंध आने लगें जितनी गंध आपके चारों तरफ चल रही हैं, तो आप विक्षिप्त हो जाएं। मनुष्य एक कैप्सूल में बंद है, उसकी सीमांत है, उसकी बाउंड्रीज हैं। आप रेडियो लगाते हैं और आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। क्या आप सोचते हैं, जब रेडियो लगाते हैं तब आवाज आनी शुरू होती है? आवाज तो पूरे समय बहती ही रहती है, आप रेडियो लगाएं या न लगाएं। लगाते हैं तब रेडियो पकड़ लेता है, बहती तो पूरे वक्त रहती है। दुनिया में जितने रेडियो स्टेशन हैं, सबकी आवाजें अभी इस कमरे से गुजर रही हैं। आप रेडियो लगाएंगे तो पकड़ लेंगे। आप रेडियो नहीं लगाते हैं तब भी गुजर रही हैं, लेकिन आपको सुनाई नहीं पड? रही हैं। आपको सुनाई नहीं पड़ रही हैं। जगत में न मालूम कितनी ध्वनियां हैं जो चारों तरफ हमारे गुजर रही हैं। भयंकर कोलाहल है। वह पूरा कोलाहल हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। ध्यान रहे, वह हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। वह हमारे रोएं-रोएं को स्पर्श करता है। हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन को छूता है। हमारे स्नायु-स्नायु को कंपा जाता है। वह अपना काम तो कर ही रहा है। उसका काम तो जारी है। जिस सुगंध को आप नहीं सूंघ पाते उसके अणु भी आपके चारों तरफ अपना काम तो कर ही जाते हैं। और अगर उसके अणु किसी बीमारी को लाए हैं तो वे आपको दे जाते हैं। आपकी जानकारी आवश्यक नहीं है किसी वस्तु के होने के लिए। ज्योतिष का कहना है कि हमारे चारों तरफ ऊर्जाओं के क्षेत्र हैं, एनर्जी फील्ड्स हैं, और वे पूरे समय हमें प्रभावित कर रहे हैं। जैसा मैंने कल कहा कि जैसे ही बच्चा जन्म लेता है, तो जन्म को वैज्ञानिक भाषा में हम कहें एक्सपोजर, जैसे कि फिल्म को हम एक्सपोज करते हैं कैमरे में। जरा सा शटर आप दबाते हैं, एक क्षण के लिए कैमरे की खिड़की खुलती है और बंद हो जाती है। उस क्षण में जो भी कैमरे के समक्ष आ जाता है वह फिल्म पर अंकित हो जाता है। फिल्म एक्सपोज हो गई। अब दुबारा उस पर कुछ अंकित न होगा--अंकित हो गया। और अब यह फिल्म उस आकार को सदा अपने भीतर लिए रहेगी। जिस दिन मां के पेट में पहली दफा गर्भाधान होता है तो पहला एक्सपोजर होता है। जिस दिन मां के पेट से बच्चा बाहर आता है, जन्म लेता है, उस दिन दूसरा एक्सपोजर होता है। और ये दोनों एक्सपोजर उस संवेदनशील चित्त पर फिल्म की भांति अंकित हो जाते हैं। पूरा जगत उस क्षण में बच्चा अपने भीतर अंकित कर लेता है। और उसकी सिम्पैथीज निर्मित हो जाती हैं। ज्योतिष इतना ही कहता है कि यदि वह बच्चा जब पैदा हुआ है तब अगर रात है...और जान कर आप हैरान होंगे कि सत्तर से लेकर नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में पैदा होते हैं! यह थोड़ा हैरानी का है। क्योंकि आमतौर से पचास प्रतिशत होने चाहिए। चौबीस घंटे का हिसाब है, इसमें कोई हिसाब भी न हो, बेहिसाब भी बच्चे पैदा हों, तो बारह घंटे रात, बारह घंटे दिन, साधारण संयोग और कांबिनेशन से ठीक है पचास-पचास प्रतिशत हो जाएं! कभी भूल-चूक दो-चार प्रतिशत इधर-उधर हो। लेकिन नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में जन्म लेते हैं; दस प्रतिशत बच्चे मुश्किल से जन्म दिन में लेते हैं। अकारण नहीं हो सकती यह बात, इसके पीछे बहुत कारण हैं। समझें, एक बच्चा रात में जन्म लेता है। तो उसका जो एक्सपोजर है, उसके चित्त की जो पहली घटना है इस जगत में अवतरण की, वह अंधेरे से संयुक्त होती है, प्रकाश से संयुक्त नहीं होती। यह सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं, क्योंकि बात तो और विस्तीर्ण है। सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। उसके चित्त पर जो पहली घटना है वह अंधकार है। सूर्य अनुपस्थित है। सूर्य की ऊर्जा अनुपस्थित है। चारों तरफ जगत सोया हुआ है। पौधे अपनी पत्तियों को बंद किए हुए हैं। पक्षी अपने पंखों को सिकोड़ कर आंखें बंद किए हुए अपने घोंसलों में छिप गए हैं। सारी पृथ्वी पर निद्रा है। हवा के कण-कण में चारों तरफ नींद है। सब सोया हुआ है। जागा हुआ कुछ भी नहीं है। यह पहला इंपैक्ट है बच्चे पर। अगर हम बुद्ध और महावीर से पूछें तो वे कहेंगे कि अधिक बच्चे इसलिए रात में जन्म लेते हैं क्योंकि अधिक आत्माएं सोई हुई हैं, एस्लीप हैं। दिन को वे नहीं चुन सकते पैदा होने के लिए। दिन को चुनना कठिन है। और हजार कारण हैं, और हजार कारण हैं, एक कारण महत्वपूर्ण यह भी है--अधिकतम लोग सोए हुए हैं, अधिकतम लोग तंद्रित हैं, अधिकतम लोक निद्रा में हैं, अधिकतम लोग आलस्य में, प्रमाद में हैं। सूर्य के जागने के साथ उनका जन्म ऊर्जा का जन्म होगा, सूर्य के डूबे हुए अंधेरे की आड़ में उनका जन्म नींद का जन्म होगा। रात में एक बच्चा पैदा हो रहा है तो एक्सपोजर एक तरह का होने वाला है। जैसे कि हमने अंधेरे में एक फिल्म खोली हो या प्रकाश में एक फिल्म खोली हो, तो एक्सपोजर भिन्न होने वाले हैं। एक्सपोजर की बात थोड़ी और समझ लेनी चाहिए, क्योंकि वह ज्योतिष के बहुत गहराइयों से संबंधित है। जो वैज्ञानिक एक्सपोजर के संबंध में खोज करते हैं वे कहते हैं कि एक्सपोजर की घटना बहुत बड़ी है, छोटी घटना नहीं है। क्योंकि जिंदगी भर वह आपका पीछा करेगी। एक मुर्गी का बच्चा पैदा होता है। पैदा हुआ कि भागने लगता है मुर्गी के पीछे। हम कहते हैं कि मां के पीछे भाग रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं। मां से कोई संबंध नहीं है; एक्सपोजर! हम कहते हैं, अपनी मां के पीछे भाग रहा है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं! पहले हम भी ऐसा ही सोचते थे कि मां के पीछे भाग रहा है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। और जब सैकड़ों प्रयोग किए गए तो बात सही हो गई है। वैज्ञानिकों ने सैकड़ों प्रयोग किए। मुर्गी का बच्चा जन्म रहा है, अंडा फूट रहा है, चूजा बाहर निकल रहा है, तो उन्होंने मुर्गी को हटा लिया और उसकी जगह एक रबर का गुब्बारा रख दिया। बच्चे ने जिस चीज को पहली दफा देखा वह रबर का गुब्बारा था, मां नहीं थी। आप चकित होंगे यह जान कर कि वह बच्चा एक्सपोज्ड हो गया। इसके बाद वह रबर के गुब्बारे को ही मां की तरह प्रेम कर सका। फिर वह अपनी मां को नहीं प्रेम कर सका। रबर का गुब्बारा हवा में इधर-उधर जाएगा तो वह पीछे भागेगा। उसकी मां भागती रहेगी तो उसकी फिक्र ही नहीं करेगा। रबर के गुब्बारे के प्रति वह आश्चर्यजनक रूप से संवेदनशील हो गया। जब थक जाएगा तो गुब्बारे के पास टिक कर बैठ जाएगा। गुब्बारे को प्रेम करने की कोशिश करेगा। गुब्बारे से चोंच लड़ाने की कोशिश करेगा--लेकिन मां से नहीं। इस संबंध में बहुत काम लारेंज नाम के एक वैज्ञानिक ने किया है और उसका कहना है कि वह जो फर्स्ट मोमेंट एक्सपोजर है, वह बड़ा महत्वपूर्ण है। वह मां से इसीलिए संबंधित हो जाता है--मां होने की वजह से नहीं, फर्स्ट एक्सपोजर की वजह से। इसलिए नहीं कि वह मां है इसलिए उसके पीछे दौड़ता है; इसलिए कि वही सबसे पहले उसको उपलब्ध होती है इसलिए पीछे दौड़ता है। अभी इस पर और काम चला है। जिन बच्चों को मां के पास बड़ा न किया जाए वे किसी स्त्री को जीवन में कभी प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते--एक्सपोजर ही नहीं हो पाता। अगर एक बच्चे को उसकी मां के पास बड़ा न किया जाए तो स्त्री का जो प्रतिबिंब उसके मन में बनना चाहिए वह बनता ही नहीं। और अगर पश्चिम में आज होमोसेक्सुअलिटी बढ़ती हुई है तो उसके एक बुनियादी कारणों में वह कारण है। हेट्रोसेक्सुअल, विजातीय यौन के प्रति जो प्रेम है वह पश्चिम में कम होता चला जा रहा है। और सजातीय यौन के प्रति प्रेम बढ़ता चला जा रहा है, जो विकृति है। लेकिन वह विकृति होगी। क्योंकि दूसरे यौन के प्रति जो प्रेम है--पुरुष का स्त्री के प्रति और स्त्री का पुरुष के प्रति--वह बहुत सी शर्तों के साथ है। पहला तो एक्सपोजर जरूरी है। बच्चा पैदा हुआ है तो उसके मन पर क्या एक्सपोज हो! अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। दुनिया में स्त्रियां तब तक सुखी न हो पाएंगी जब तक उनका एक्सपोजर मां के साथ हो रहा है। उनका एक्सपोजर पिता के साथ होना चाहिए। पहला इंपैक्ट लड़की के मन पर पिता का पड़ना चाहिए। तो ही वह किसी पुरुष को भरपूर मन से प्रेम करने में समर्थ हो पाएगी। अगर पुरुष स्त्री से जीत जाता है तो उसका कुल कारण इतना है कि लड़के और लड़कियां दोनों ही मां के पास बड़े होते हैं। तो लड़के का एक्सपोजर तो बिलकुल ठीक होता है स्त्री के प्रति, लेकिन लड़की का एक्सपोजर बिलकुल ठीक नहीं होता। इसलिए जब तक दुनिया में लड़की को पिता का एक्सपोजर नहीं मिलता तब तक स्त्रियां कभी भी पुरुष के समकक्ष खड़ी नहीं हो सकेंगी--न राजनीति के द्वारा, न नौकरी के द्वारा, न आर्थिक स्वतंत्रता के द्वारा। क्योंकि मनोवैज्ञानिक अर्थों में एक कमी उनमें रह जाती है। वह अब तक की पूरी संस्कृति उस कमी को पूरा नहीं कर पाई है। अगर यह छोटा सा गुब्बारा, या मुर्गी, या मां, इनका एक्सपोजर प्रभावी हो जाता है इतना ज्यादा कि चित्त सदा के लिए उससे निर्मित हो जाता है!
क्रमशः अगली पोस्ट पर...

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