Friday, August 10, 2012

बुद्धिवादी

        आशीर्वादों से बनी जिंदगी है।
        बचपन में एक बूढ़े अंधे भिखारी को उन्होंने हाथ पकड़कर सड़क पार करा दिया था। अंधे भिखारी ने आशीर्वाद दिया - बेटा, मेरे जैसा हो जाना। अंधे भिखारी का मतलब लंबी उम्र से रहा होगा। पर उन्होंने दूसरा मतलब निकाला और अध्यापक हो गए।
        अध्यापक थे, तब एक टिटहरी की प्राण-रक्षा की थी। टिटहरी ने आशीर्वाद दिया - भैया, मेरे जैसा होना। टिटहरी का चाहे जो मतलब रहा हो, पर वे 'इंटलेक्चुअल' बुद्धिवादी हो गए। हवा में उड़ते हैं, पर जब ज़मीन पर सोते हैं तो टांगे ऊपर करके - इस विश्वास और दंभ के साथ, कि आसमान गिरेगा तो पांवों पर थाम लूँगा।
       आशीर्वादों से बनी ज़िंदगी का अब यह हाल है कि बंधी आमदनी दो-ढाई हज़ार की है। बंगला है, कार है। दोनों लड़के अच्छी नौकरी पा गए हैं। लड़की रिसर्च कर रही है। ऐसे में शरीफ आदमी इंटेलेक्चुअल हो जायेगा - वे कोई खास शरीफ भी नहीं है। वे होने में ऐसे ही लेट हो गए।
       दो साल विदेशों में रहकर वे लौटे तो परिचितों में हल्ला हो गया कि वे बुद्धिवादी हो गए हैं। तमाशा-प्रेमी लोग उन्हें देखने जाते और बताते कि वे सचमुच बुद्धिवादी हो गए। एक ने उन्हें खिड़की से झांककर देखा और हमें बताया - वह तो सचमुच बुद्धिवादी हो गया। कमरे में बैठा छत को ऐसे देख रहा था जैसे यह हिसाब लगा रहा हो कि छत कितने सालों में गिर जाएगी। एक ने उन्हें बगीचे में घूमते देख लिया। कहने लगा - जब वह फूल की तरफ देखता, तो फूल कांपने लगता। वह भयंकर बुद्धिवादी हो गया है।
       एक दिन हम उनसे मिलने पहुंचे - मैं और मेरा एक मित्र। फोन पर उन्होंने आधे घंटे बाद आने को था। हम उन दिनों पूर्वी पाकिस्तान के तूफ़ान-पीड़ितों का लिए चन्दा इकट्ठा कर रहे थे। सोचा, बुद्धिवादी को देख भी लेंगे और कुछ चन्दा भी ले लेंगे।
       उनके कमरे में हम घुसे। सचमुच वे बदल गए थे। काली फ्रेम का चश्मा निकल गया था। उसकी जगह पतली सुनहरी फ्रेम का चश्मा वे लगाए थे।आँखों की चमक और फ्रेम की चमक एक-दूसरी को प्रतिबिम्बित करके चकाचौंध पैदा कर रही थीं। मुद्रा में स्थायी खिन्नता। खिन्नता दुखदायी होती है। मगर उनके चेहरे पर सुखदायी खिन्नता थी। खिन्नता दुनिया की दुर्दशा पर थी। उसमें सुख का भाव इस गर्व से मिला दिया गया था कि मैंने इस दुर्दशा को देख लिया। बाईं तरफ का नीचे का होंठ कान की तरफ थोड़ा खिंच गया था जिससे दोनों होंठों के बीच थोड़ी जगह हो गयी थी। स्थायी खिन्नता व लगातार चिंतन से ऐसा हो गया था। पूरे मुँह में वही एक छोटी-सी सेंध थी जिसमें से उनकी वाणी निकलती थी। बाकी मुँह बंद रहता था। हम पूरे मुँह से बोलते हैं, मगर बुद्धिवादी मुँह के बायें कोने को जरा-सा खोलकर गिनकर शब्द बाहर निकालता है। हम पूरा मुँह खोलकर हँसते हैं, बुद्धिवादी बाईं तरफ के होंठों को थोड़ा खींचकर नाक की तरफ ले जाता है। होंठ के पास के नथुने में थोड़ी हलचल पैदा होती है और हम पर कृपा के साथ यह संकेत मिलता है कि - आई एम एम्यूज़्ड! तुम हंस रहे हो, मगर मैं सिर्फ थोड़ा मनोरंजन अनुभव कर रहा हूँ। गंवार हँसता है, बुद्धिवादी सिर्फ रंजित होता है।
       टेबिल पर ५-६ किताबें खुली हुई उलटी इस तरह पड़ी हैं जैसे पढ़ते-पढ़ते लापरवाही से डाल दी हों। पर वे लापरवाही से ऐसे छोड़ी गई हैं कि हर किताब का नाम साफ़ दिख रहा है। किताबों की समझदारी पर मैं न्यौछावर हो गया। लापरवाही से एक-दूसरी पर गिरेंगी तो भी इस सावधानी से कि हर किताब का नाम न दबे। मैं समझ गया की वे किताबों को पढ़ नहीं रहे थे। हमें आधा घंटा बाद उन्होंने बुलाया था। इस आधा घंटे में उन्होंने बड़ी मेहनत से इन किताबों की बेतरतीबी साधी होगी। बुद्धिवादी बार-बार किताबों की तरफ हमारा ध्यान खींचने की कोशिश करता है। वह चाहता है, हम चकित हों और कहें - कितनी तरह की पुस्तकें पढ़ते हैं आप ! इनके तो हमने नाम भी नहीं सुने। हम चकित होने में देर कर रहे हैं। बुद्धिवादी थोड़ा बेचैन होता है।
       उन्होंने हमें इस तरह बैठाया है कि हमारी तरफ देखने में उन्हें सिर को ३५ डिग्री घुमाना पड़े। ३५ सिर घुमाकर, सोफे पर कुहनी टिकाकर, हथेली पर ठुड्डी को साधकर वे जब भर नज़र हमें देखते हैं तो हम उनके बौद्धिक आतंक से दब जाते हैं। हम अपने को बहुत छोटा महसूस करते हैं। उनकी मुद्रा और दृष्टि में जादू पैदा हो जाता है। जब इस कोण से हमें देखकर वे पेट में से निकलती-सी धीमी गम्भीर आवाज़ में कहते हैं - टू माई माइंड - तो हमें लगता है यह आवाज़ ऊपर बादलों से आ रही है। पर आसमान तो साफ़ है। बड़ी कोशिश से हम यह जान पाते हैं कि यह आवाज़ बुद्धिवादी के होंठों के बायें बाज़ू की पतली सेंध में से निकली है। जब वे 'टू माई माइंड' कहते हैं, तब मुझे लगता है, मेरे पास दिमाग नहीं है। दुनिया में सिर्फ एक दिमाग है और वह इनके पास है। अब वे ३५ डिग्री सिर को नहीं घुमाए होते और हथेली पर ठुड्डी नहीं होती, तब वे बहुत मामूली आदमी लगते हैं। कोण से बुद्धिवाद साधने की कला सीखने में कितना अभ्यास लगा होगा उनको।
       बुद्धिवादी में लय है। सर घुमाने में लय है, हथेली जमाने में लय है, उठने में लय है, कदम उठाने में लय है, अलमारी खोलने में लय है, किताब निकालने में लय है, किताब के पन्ने पलटने में लय है। हर हलचल धीमी है। हल्का व्यक्तित्व हड़बड़ाता है। इनका व्यक्तित्व बुद्धि के बोझ से इतना भरी हो गया है कि विशेष हरकत नहीं कर सकता। उनका बुद्धिवाद मुझे एक थुलथुल मोटे आदमी की तरह लगा जो भारी कदम से धीरे-धीरे चलता है।
       वे बोले - मुझे यूरोप जाकर समझ में आया कि हम लोग बहुत पतित हैं।
       मैंने कहा - अपने पतन को जानने के लिए आपको इतनी दूर जाना पड़ा।
       बुद्धिवादी ने जवाब दिया - जो गिरनेवाला है वह नहीं देख सकता कि वह गिर रहा है। दूर से देखनेवाला ही उसके गिरने को देख सकता है।
       उस वक्त हमें लगा कि हम एक गड्ढे में गिरे हुए हैं और यह गड्ढे के ऊपर से हमें बता रहा है कि हम गिर गए हैं। उसने हमारा गिरना देख लिया है इसलिए वह गिरनेवालों में नहीं है।
       मेरे मित्र ने पूछा - हमारे पतन का कारण क्या है।
       बुद्धिजीवी ने आँखें बंद करके सोचा। फिर हमारी तरफ देखकर कहा - टू माई माइंड, हममें करेक्टर नहीं है।
       अपने पतन की बात उन्होंने इस ढंग से कही कि लगा, उन्हें हमारे पतन से संतोष है। अगर हम पतित न होते तो उन्हें यह जानने और कहने का सुयोग कैसे मिलता कि हम गिरे हुए हैं और हमारा गिरना वे साफ़ देख रहे हैं।
       साथी ने अब मुद्दे की बात कहना जरूरी समझा। बोला - पूर्वी पाकिस्तान में तूफ़ान से बड़ी तबाही हो गई है।
       उसने मृत्यु, बीमारी, भुखमरी की करुण गाथा सुना डाली।
       बुद्धिवादी सुनता रहा। हम दोनों असर का इंतज़ार कर रहे हैं। असर हुआ। बुद्धिवादी ने मुँह के कोने से शब्द निकाले - हाँ, मैंने अखबार में पढ़ा है।
       उस वक्त हमें लगा की पूर्वी बंगाल के लोग कृतार्थ हो गए कि उनकी दुर्दशा के बारे में इन्होने पढ़ लिया। तूफ़ान सार्थक हो गया। बीमारी और भुखमरी पर उन्होंने बड़ा एहसान कर डाला।
       मैंने कहा - हम लोग उन पीड़ितों के लिए धन संग्रह करने निकले हैं।
       हम चन्दा लेने आए थे। वे समझे हम ज्ञान लेने आए हैं।
       उन्होंने हथेली पर ठुड्डी रखी और उसी मेघ-गंभीर आवाज़ में बोले - टू माई माइंड - प्रकृति संतुलन करती चलती है। पूर्वी पाकिस्तान की आबादी बहुत बढ़ गई थी। उसे संतुलित करने के लिए प्रकृति ने तूफ़ान भेजा था।
       इसी बीच पूर्वी बंगाल में उनकी सहायता के अभाव में एक आदमी और मर गया होगा।
       अगर कोई आदमी डूब रहा हो, तो वे उसे बचाएंगे नहीं, बल्कि सापेक्षिक घनत्व के बारे में सोचेंगे।
       कोई भूखा मर रहा हो, तो बुद्धिवादी उसे रोटी नहीं देगा। वह विभिन्न देशों के अन्न-उत्पादन के आँकड़े बताने लगेगा।
       बीमार आदमी को देखकर वह दवा का इंतजाम नहीं करेगा। वह विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट उसे पढ़कर सुनाएगा।
       कोई उसे अभी आकर खबर दे कि तुम्हारे पिताजी की मृत्यु हो गई, बुद्धिवादी दुखी नहीं होगा। वह वंश-विज्ञान के बारे में बताने लगेगा।
       हमने चंदे की उम्मीद छोड़ दी। अगर हमने बुद्धिवादी से चंदा मांगा, तो वह दुनिया की अर्थ-व्यवस्था बताने लगेया।
       अब हमने अपने-आपको बुद्धिवादी के हाथों सौंप दिया।
       वह सोच रहा था, सोच रहा था। सोचकर बड़ी गहराई से वह खोजकर लाया, वह सत्य जिसे आज तक कोई नहीं पा सका था। बोला - टू माई माइंड, अवर ग्रेटेस्ट एनिमी इज़ पावर्टी। (मेरे विचार में, हमारा सबसे बड़ा शत्रु गरीबी है।)
       एक वाक्य सूत्र रूप में कहकर बुद्धिवादी ने हमें सोचने के लए वक्त दिया। हमने सोचा, खूब सोचा। मगर गरीबी की समस्या के हल के लिए फिर बुद्धिवादी की तरफ लौटना पड़ा। मैंने पूछा - गरीबी दुनिया से कैसे मिट सकती है ?
       बुद्धिवादी ने कहा - मैंने सोचा है पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों मनुष्य-विरोधी हैं। ये दोनों गरीबी नहीं मिटा सकते। हमें आधुनिक तकनीकी साधनों का प्रयोग करके खूब उत्पादन बढ़ाना चाहिए।
       मैंने पूछा - मगर वितरण के लिए क्या व्यवस्था होगी ?
       बुद्धिवादी ने कहा - वही मैं आजकल सोच रहा हूँ। एक थ्योरी बनाने में लगा हूँ।
       मनुष्य जाति की तरफ आशा की एक किरण बढ़ाकर बुद्धिवादी चुप हो गया।
       मेरे साथी ने कहा - हमें समाज का नव-निर्माण करना पड़ेगा।
       बुद्धिवादी ने फिर हम बौनों को घूरकर देखा। बोला - समाज का पहला फ़र्ज़ यह है कि वह अपने को नष्ट कर ले। सोसाईटी मस्ट डेस्ट्राय इटसेल्फ ! यह जाति, वर्ण और रंग और ऊंच-नीच के भेदों से ज़र्ज़र समाज पहले मिटे, तब नया बने।
       सोचा, पूछूं - सारा समाज नष्ट हो जायेगा तो प्रकृति को मनुष्य बनाने में कितने लाख साल लग जायेंगे ? मैंने पूछा नहीं। यह सोचकर संतोष कर लिया कि सिर्फ मैं समझता हूँ, यह अहसास आदमी को नासमझ बना देता है।
       बुद्धिवादी मार्क्सवाद की बात कर लेता है। फ्रायड और आइन्सटीन की बात कर लेता है। विवेकानन्द और कन्फूसियस की बात कर लेता है। हर बात कहकर हमें समझने और पचाने का मौका देता है। वह जानता है, ये बातें हम पहली बार सुन रहे हैं।
       हम पूछते हैं - फिर दुनिया की बीमारी के बारे में आपने क्या सोचा है ? किस तरह यह बीमारी मिटेगी ?
       वह आँख बंद कर लेता है। सोचता है ! हम बड़ी बात सुनने के लिए तैयार हो जाते हैं। बुद्धिवादी कहता है - अल्टीमेटली आई हेव टु गेन्डी। (आखिर मुझे गाँधी की तरफ लौटना पड़ता है।) 'लव्ह' प्रेम।
       बुद्धिवादी अब क्रांतिकारिता पर आ गया है। कहता है - स्टुडेण्ट पावर ! यूथ पावर ! हमें अपने समाज के युवा वर्ग को आज़ादी देनी चाहिए। वही पलटेंगे इस दुनिया को। वही बदलेंगे। जो कौम अपने युवा वर्ग को दबाती है, वह कभी ऊपर नहीं उठ सकती। यह किताब देखिए प्रोफेसर मार्क्युज़ की। यह कोहेन बेंडी की किताब !
       बुद्धिवादी गम्भीर हो गया। उसने अंतिम सत्य कह दिया।
       हम उठने की तैयारी करने लगे। इसी वक्त नौकर ने एक लिफाफा लाकर उन्हें दिया।
       बुद्धिवादी चिट्ठी पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते उसमें परिवर्तन होने लगे। ३५ डिग्री का सिर का कोण धीरे-धीरे कम होने लगा। बुद्धिवादी सीधा बैठ गया। होंठ की मरोड़ मिट गई। आँखों में बैठी बुद्धि गायब हो गई। उसकी जगह परेशानी आ गई। चेहरा सपाट हो गया। सांस ज़ोर से चलने लगी। बुद्धिवादी निहायत बौड़म लगने लगा।
       बुद्धिवादी ने चिट्ठी को मुट्ठी में कस लिया। चश्मा उतर लिया। हम नंगी आंखें देख रहे थे। वे बुझ गई थीं। चमक चश्मे के साथ ही चली गई थी। दम्भ शायद मुट्ठी में चिट्ठी के साथ दब गया था।
       मैंने कहा - आप परेशान हो गए। सब खैर तो हैं।
       बुद्धिवादी हतप्रभ था। वह हमारे सामने अब उस असहाय बच्चे की तरह हो गया जिसका खिलौना बाल्टी में गिर गया हो।
       गहरी सांस लेकर बुद्धिवादी ने कहा - यह ज़माना आ गया!
       मैंने पूछा - क्या हो गया ?
       बुद्धिवादी ने कहा - लड़की अपनी मौसी के घर लखनऊ गई थी। वहीँ उसने शादी कर ली। हमें पता तक नहीं।
       मैंने पूछा - लड़का क्या करता है ?
       बोले - इंजीनयर है।
       मैंने कहा - फिर तो अच्छा है।
       बुद्धिवादी उखड़ पड़ा - क्या अच्छा है ? मैं उसे जेल भिजवाकर रहूँगा।
       हमारे सामने एक महान क्षण उपस्थित था। मनुष्य जाति के आंतरिक सम्बन्धों के बारे में कोई महान सत्य निकलने वाला है उनके मुख से। अब उनका मुँह पूरा खुलने लगा है। चश्मा लगाए वे तब होंठों की सम्पुट के कोने से गुरु-गम्भीर आवाज़ निकालते थे। अब पूरा मुँह खोलकर बोलते हैं।
       बुद्धिवादी इस स्थिति का क्या विश्लेषण देता है! यूथ पावर ? स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की बुनियाद ? विवाह की स्वतंत्रता ?
       हम उनके मुँह की तरफ देखते हैं। उनकी परेशानी बढ़ती जाती है। चिट्ठी को वे लगातार भींच रहे हैं। वे शायद पत्नी को यह खबर बताने को आतुर हैं। पर हम यह जानने को आतुर हैं कि इतनी अच्छी शादी को लेकर ये परशान क्यों हैं ? ज़रूर इसमें कोई महान दार्शनिक तथ्य निहित है, जो सिर्फ बुद्धिवादी समझता है।
       मैंने कहा - लड़का-लड़की बड़े हैं। शादी मौसी के यहाँ हुई। वर अच्छा है। फिर आप दुखी और परेशान क्यों हैं ? हम जिज्ञासुओं को वह रहस्य बताईये ताकि हम भी जीवन के प्रति बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपना सकें।
उन्होंने नंगी बुझी आंखों से हमारी तरफ देखा। फिर अत्यन्त भरी आवाज़ में कहा - वह लड़का कायस्थ है न !

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       यह लेख हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संग्रह 'अपनी-अपनी बीमारी' से लिया गया है। आज उनकी पुण्य-तिथि है इसी महीने की बाईस तारीख को उनका जन्म-दिन भी है। उस दिन के लिए भी उनकी एक रचना मैंने अपने ब्लॉग पर शेड्यूल्ड कर दी है। (मैंने इसे १० अगस्त के लिए शेड्यूल किया था पर शायद तकनीकी या डेट फोर्मेट के कंफ्यूज़न से ये कल प्रकाशित नहीं हो सका था, सो आज मैनुअली करना पड़ा ;-)