Tuesday, May 24, 2011

रेजगी को कवि-सम्मेलन

एक दफा एक रोकड़ियै नैं
कवि सम्मेलन सुणबां खातर गयो बुलायो
बो कुछ हांस्यो, कुछ मुळकायो
संयोजक, बिन कवियां कै क्यांको कवि सम्मेलन करर्'या है
सारा कवि तो मेरी रोकड़ की पेटी में बन्द पड़्या है
रीतिकाल कै चाँदी कै रिपियै सैं लेकै
छायावाद रहस्यवाद की धेली अर पावली ही नहीं
प्रगतिवाद को आनूं टकड़ो पीसो धेलो
अर प्रयोगवादी दस पीसा, पांच पीसड़ी
और अकविता युग ताणीं की तीन पीसड़ी, एक पीसियो
सारै का सारा युग युग का ये प्रतिनिधि कवि और कवित्री
मेरी रोकड़ की पेटी में हीं कवि सम्मेलन करर्'या है
और कवी सै झूठा है, ये कवि सांचा है
क्यूँ ? मैं तो नित्त हमेशा
सब कवियां नैं आंकै ही लैर्'यां फिरतो देखूं हँ
सुणणूं चावो तो थानैं आं भांत भांत कै-
कवियां की कविता सुणवाद्'यूँ

देखो चांदी को रिपियो आं सब कवियां को सभापति है
नई पुराणीं पीढी का सै कवि कानीं कानीं बैठ्या है
कान लगाकै सुणों, सभापति के कहर्'या है-
"स्यांत स्यांत श्रोतावों, बेटी और बेटियों!
आज आप जो मनैं सभापति कर्'यो आपकी बड़ी किरपा है
पण, थारी निजरां में मैं एकदम बूडो होगो
पण सांची बात बताद्'यूँ क बूडो नीं हूँ
जोध जुवानां नैं भी परै बठाद्'यूँ हूँ मैं
चालूँ हूँ जद इब भी मैं
पैल्यां सैं पाँच गुणूँ तेजी सैं चाल सकूँ हूँ
मैं मेरे छोटे भाई रिपियै कै नोट की जियां नहीं हूँ
जो धरम करम छोडकै रूप भी बदळ लियो बेसरम कठे को
लाडेसर बस पूरी जिन्दगानी में एक बार ही न्हायो
तो कमेच की गोजी में बो भेळो होकै
सूक्योड़ी बिटकणी जियां को होर चिपगो थो
न्हांवणघर में गाबैं पै पैलो मुक्को पड़तां हीं बींका
प्राण पखेरू तो उड़गा था
कूट कूटकै धोयां और निचोयां पाछै तो खाली फूई बंची थी
झूठोई सूर बीर होर्'यो थो
म्हें था तो धोती की अंटी में अटक्या ही
निधड़क होकै चल्या गया था न्हावणघर में
धोतां धोतां म्हारै भी मुक्को मार्'यो थो
पण मारणियैं की ही दो आंगळी टूटगी, तोबा मारी!
बो ही तेल रगड़ाबो कर्'यो आठ दिन तांणीं
आं जीवां को कै बिगड़ै थो
मेरै कहणै को मतलब है
आज जमानूँ जिसो ळिळपळो हुयो
बिसा ही सिक्का होगा
और बिसा ही कवी, बिसी ही कविता होगी

खैर- सबसे पहले आज आपको मेरी पत्नी
धवल अठन्नी बाई, नहीं अठन्नी देवी की कविता सुणवाता
जिससे मेरा जन्म जन्म तक रहा पती-पत्नी का नाता
पढ़ो अठन्नी देवी ?
एक कांगणींदार पाड़ की धोती बांध्यां
मूँ पै घणीं उदासी लियां अठन्नी बाई आगै आई
हाथ जोड़ती सबनैं कविता इयां सुणाई
"मैं रुपये की अर्धांगिनि थी अब हूँ गोली बांदी
कोई दुस्ट निकाल लेग्या मेरी सारी चांदी
बिसम आर्थिक संकट आया आई ऐसी आंधी
सब जग बना रहस्य समय की गति न किसी ने बांधी
प्रियतम के ही साथ आज मैं पड़ी खाट पर मांदी
कोई दुस्ट निकाल ले गया मेरी सारी चांदी

वाह वाह अठन्नी देवी!
मेरा सारा घाव हर्'या कर दिया
पण इब भूल ज्याणैं में हीं सार है
हां तो अब पावली बाई की कविता सुणो
सुणतां हीं पावली बाई स्टेज पै आई
कमर कुछ तो झुक्योड़ी थी कुछ और झुकाई
सफेद बुरकि धोती को पल्लो खींचकै बोली- "मैं क्या बोलूँ
आज हृदय की गाठों को मैं कैसे खोलूं ?"
एक चुलबुलो श्रोता बोल्यो-
"अरै बावळी हिरदै की गांठाँ नैं पैल्यां तू इतणीं उळजाई क्यूं थी"

हां- तो मेरी कविता है जग छाया
जग छाया काया छाया मन क्यों भरमाया ?
कहीं धूप है कहीं छांवली, कहीं अठन्नी कहीं पावली
कहीं सयानी कहीं बावली, सब प्रभु की माया
जग छाया काया छाया, मन क्यों भरमाया

वाह क्या बात है पावली बाई
इसी जोर की कविता सुणाई क
आदां'क कै समज में आई, आदां'क कै कोनी आई
अब नई पीढी को दस पीसो आपकी कविता सुणावैगो
कविता कै सागै सागै आपको उपनाम भी बतावैगो
पावली बाई बेठी भी नहीं थी क
दस पीसियो खड़्यो होतो होतो पावली बाई सैं टकरागो
पावली बाई तो आखड़कै भी सम्हळगी
पण दस पीसियै को पजामूँ फाटगो
पाछै भी हिम्मत बटोरकै कविता सुरू करी-
"नाम तो मेरो दस पीसो है
पण कवितां में मेरो उपनाम पोस्टकार्ड है"
जनम सैं प्रयोगवादी होकर भी कर्म सैं प्रगतिवादी हूँ
क्यूँक मेरो नाम पोस्टकार्ड है
मुरारजी देसाई सरीखा मेरा गार्ड है
छोटै कवियां नैं बै घणूँ बढ़ावो देवै
जींसैं हीं मेरी उन्नति होती गई कीमत चडती गई
छै पीसां सै सीदो दस पीसां पै आगो
जद तो इबार पावली बाई सैं हीं टकरागो!
तो बोल मुरारजी भाई की जे, हां तो कविता है-
मैं दस पीसो मैं पोस्टकार्ड
मैं घूम्यायो सब नगर गांव, सब गळी गळी सब ठौर ठांव
मैं फिरतो ही रूं बण्यो लार्ड, मैं पोस्टकार्ड-०.
गाडी देखी देख्यो जहाज मेट्रो लिबर्टी और नाज
बासो देख्यो, देख्यो गेलार्ड, मैं पोस्टकार्ड-०.
बोल मुरारजी भाई की जै।

दस पीसै के बाद पुराणूँ टकड़ो आकै कविता गाई
"अब हम हैं किस काम के ?
वैसे भरी जवानी में भी हम थे चार छदाम के
बिधना से मोटापा पाया, पर वह भी कुछ काम न आया
चलते ही लड़खड़ा गये हम, औंधे गिरे धड़ाम से
अब हम हैं किस काम के!
हलवाई ने हमें टटोला, वर्षों तक हमने घी तोला
नये बाट आकर अब हमको भक्त बना गये राम के
बोल सिया राम सिया राम सिया राम"

इबकै एक हास्यरस कै एक पुराणैं कोचकै हाळै
पीसै को लंबर आयो तो पबलिक हांसी
आतां हीं फल्डाटै सैं बो कविता पडणीं सुरू कर दई
"रै मेरो काळजो काडकै कुण लेगो रे ?
रै मेरै बीच में कोचको कुण करगो रे ?
रै ईं जग में मैं हीं इतणूं फूट्योड़ो तकदीर-
कियां लेकर आयो जो सनीवार की सनीवार
डाकोतां कै तेल सैं भर् योड़ै लोटै में
सै ज्यादातर मन्नैं हीं पटक्यो!
बर बर में तेलिया न्हांण कर उखतागो रे
रै मेरो काळजो काडकै कुण लेगो रे!"

इबकैं घणीं नई पीड़ी की तीन पीसड़ी
गीत सुणावनैं माइक पै आगै आई-
"मैं किसको लिख भेजूँ पाती
प्रियतम एक फूँक मारे तो मैं चौराहे तक उड़ जाती
मैंने क्या पाया जीवन में, भरी हुई कुण्ठाएँ मन में
पांचों बहिनें पर हाथों में जा प्रियतम को पान खिलाती
मैं किसको लिख भेजूँ पाती"
एक मसकरो श्रोता बींकै सुर में हीं सुर मिला
दूर सैं गावण लाग्यो
"क्यूँ कररी तूँ रोटी ठंडी खा क्यूँ ले नां ताती ताती"
"मै किसको लिख भेजूँ पाती!"

चांणचके ही बठै मंच पै भगदड़ सी माची
सब कवियां अर श्रोतावां में फुसफुसाट सी होवण लागी
कवियां कै मंच पै नोट सौ को आगो थो
सभापती जी खुद स्वागत करबानैं भाग्या
आवो आवो अठे पधारो
घणैं दिनां सैं थारा दरसण मेळा होया
इब तो थे भी माइक पै आकरकै कुछ इमरत बरसावो
"हां हां- थे भी कुछ सुणवावो" का ही रोळा होवण लाग्या
आग्रह सुणकै सौ को नोट घणूँ सुसकातो
अर थोड़ी हेकड़ी जतातो
खड़्यो हो’र माइक पकड़्यो तो सब चुपचाप स्यांत होगा था
जाणैं कोई चिड़ियां में भाठो पड़गो हो

"क्षमा कीजियेगा हमको कुछ देर हो गई
वैसे इन सम्मेलनादि में मैं बिलकुल नहिं आता जाता
आप जानते हैं मुझको कितने दतर संभालने पड़ते
छोटे छोटे फंक’शंस में आने की फुरसत ही नहिं मिलती
आज बैंक की और दफ्तरों की छुट्टी थी
सोचा चलो चलै हो आयें
कितनां काम करना पड़ता है
सच पूछो तो वर्षों से तो बाल कटाने की
फुरसत भी नहीं मिली थी
अभी अभी मैं बाल कटाकर ही आया हूँ
देखो पहले से कितना छोटा लगता हूँ
पहले से शायद कुछ सुन्दर भी लगता हूँ
एक सरोता हाथ जोड़तो उठ्यो’र बोल्यो-
"माई बाप, कविराज
आपको कांईं बाळ बढाणूँ, कांईं बाळ कटाणूँ
सांची तो या है क आपतो-
दोन्यूँ रूपां में हीं म्हांनैं घणां प्यारा लागो हो
जांणैं थानैं काळजियै सैं हीं चिपकाल्यां"

ठीक है, ठीक है, हां तो बच्चों!
कविता तो हम आज आपको क्या सुनवायें
वैसे तो हमनें जीवन भर बहुत कहा है
कहने को बाकी अब कुछ भी नहीं रहा है
फिर भी कुछ दो-चार पंक्तियां कह देता हूँ
"भांति भांति के फूल धरा पर खिलते मिटते फिर खिलते हैं
किन्तु अंत में आकर के ये सब मेरे में हीं मिलते हैं!"
यह रहस्यवादी रचना है
वैसे रहस्यवादी बहुत हुए हैं
एक थे नां कवि निराला ?
उससे हमारी खूब चलती थी
मुझे देखकर तो उसकी आंखें जलती थीं
"नहीं माई बाप निराला जी सैं
आपकी कविता घणीं भारी पड़ै
आप तो आप हो, सब कवियां का साक्षात बाप हो!"

सुणकै सब ताळियां बजाई
सौ को नोट झूमतो-अकड़तो
सभापति जी कै गींडवै पै जाकै बैठ्यो
इब इत्तै बड़ै कवि कै बाद कविता कुण सुणावै
सभापति जी कई जणां नै बुलावै
(पण) कोई भी आगै नीं आवै
सभापती जी खुद भी सिट्टी पिट्टी भूल्या
लाचार होकै कवि-सम्मेलन खतम करणूं पड़'यो-

सम्मेलन खतम होतां हीं
और और कवि तो बापड़ा अळसायोड़ा सा मूं लेकै
आप आपकै रस्तै लाग्या
और घणां सारा श्रोता भेळा होकरकै
सौ कै नोट कवीं नैं च्यारूं कानीं सैं हीं घेर लिया
बै घणीं घणीं तारीफ करै अर न्यूंता देवै
"आपकी बोली में तो सा कांई मिठास है
आप सामैं खड़'या भी कित्ता सोवणां लागो सा
आपनैं काल म्हांरै घरां हीं चाय पीणीं पड़ैगी
मेरी वाइफ तो थारी भौत तारीफ सुणराखी है
पण आज तांणीं थानैं देख्या नीं है
बा थांसूं घणूं प्रेम करै है"

"एक वाइफ ही के आँपै तो सारी दुनिया मरै है"
थारै दरसणाँ नैं सब तरसै है
जीं घर में आप जावो बठे इमरत को में बरसै है
थारी जीत सैं हों ये सारा दीवा परकासै है
थे हाँसो तो सारी दुनियां हाँसे है
सो, हे सौ का नोट कविराज
जिसा थे आज कवि-सम्मेलन नैं टूठ्यो,
बिसा सबनैं टूठियो
कहतै सुणतै नैं अर हुँकारा भरतै नैं
सैं नै टूठियो।



'टसकोळी' (1972)

_________________________________________

(0.) रेजगी = चिल्लर; (1.) मुळकायो = मुस्कुराया; (2.) ताणीं = तक; (3.) लैर्'यां = पीछे; (4.) कानीं कानीं = सब तरफ, इधर-उधर; (5.) कमेच = कमीज़; (6.) गोजी = जेब; (7.) भेळो = सिकुड़ा हुआ; (8.) ळिळपळो = लिजलिज़ा; (9.) आखड़कै = लड़खड़ा कर; (10.) कोचकै = छेद, छिद्र; (11.) हाळै = वाले; (12.) फल्डाटै सै = फुर्ती से; (13.) काडकै = निकाल कर; (14.) ताती = गर्म; (15.) चांणचके = अचानक; (16.) रोळा = हो-हल्ला, शोरगुल; (17.) भाठो = पत्थर; (18.) गींडवै = मसन्द,गद्दी; (19.) अळसायोड़ा = बासी, उदास, लिजलिज़ा; (20.) टूठ्यो = कृपा बरसाई (मुख्य रूप से गणेश देवतादि की कथाओं के अंत में कहा जाने वाला नियमित वाक्य, मसलन "जैसा फलां-फलां पर टूठ्या बीसा म्हारे पर भी टूठियो, हम पर भी वैसी कृपा बरसाना)




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अरै रूसियों! रै बेटी का बापों के अकरम करर् या हो
सुणी है क थे आज चांद पै जाणैं की त्यारी करली है
बींटै पै पेटी धरली है

ल्यूना ९ पूँचके चाँद पै थानैं कुछ फोटू भेजी है
बाँ तसबीरां सैं बिलकुल बेरो पट्टै है (क)
चाँद देस की बीं धरती पै भौत घणाँ खाडा-खाळिया है
ज्वालामुखी पहाड़ रेत की पड़तां अंदर
बड़ा-बड़ा है कई समंदर
ना कोई माणस, ना कोई बंदर
ना कोई मैजत, ना कोई मंदर
ऐंया की सुनसान जगां में
ल्यूना ९, जाकर ऐयां हीं बोल्यो होसी
गोरख आयो जाग मछंदर!

हाँ और बात तो ठीक हो सकै
पण ल्यूना ९, खाडा-खळिया की फोटू कैंयां क्यूँ भेजी
अरै रूसियों कहद्यो
या खाडा-खळियाँ हाळी फोटू बिलकुल झूठी है
क्यूँक जद सैं ये फोटू अखबाराँ में अखबाराँ हाळा छापी
जद सैं सारा छायावादी कवि मूदै माथै पड़गा है
बांकै सौ-सौ सांप काळजै में लड़गा है!
कई लाज सैं झुक धरती कै मां गडगा है! 
पण चोखोजी, बांको भी गिरगिराट मिटणूँ  चाये थो
बै इबताणी स्हैज घाल रखी थी घाई
घर की हो चाये पर की हो
दीखी चाये कोइ सोवणीं सीक लुगाई
बींकै ही मूँडै को बरणन करी चांद सी सुन्दरताई
इब निरखो बा सुन्दरताई!
इब तो माता सैं ही बीज्योड़े मूँडै का खाडा-खाई
मेरै सा ही काळा-कळजाया’र सूगली सी सूरत का
पावैगा सुंदरता में चांद सैं बड़ाई
इब थोथा ही सुपनां ल्यो सोवणीं लुगाइ

हाँ एक बात म्हें नई सुणी है क
फोटू सैं थानैं बिलकुल बेरो पटगो है, क
आदो चांद उजाळै में है
और दूसरी कानी बिलकुल अँधेरो
वारै मोथों! थानैं इब पट्टयो यो बेरो ? रै ना समजों!
यो अंधेरो और च्यांनणूँ सैंकै ही सागै रै है
कोई कै पीछे कोई कै आगै रै है
पण यो अंधेरो और च्यानणूँ तो सैं कै ही सागै रै है
अरै रूसियों! इब आगै तो ध्यांन राखियो
मावस कानी हाळो हिस्सो छोड़ लैरनैं
इब तो पून्यूं हाळै कानीं सैं हीं चढियो!

एक बात फोटू में इ सैं भी बढकर है
कि चांद, देस की बीं धरती पै हवा-तवा ही कोनी दीखै
इब काळै होगो ना डबको!
म्हें तो जद भी बींपर जाणैं की सोचै था
खाली सुद्व हवा ही खाणैं की सोचै था
और चांद पर कुणसी सजनगोठ होरी है ?
कुणसा धोया धोया थाळ परोस दिया.......... गावै है कोई
कुणसी बठे ल्हकोवैगी जूतियाँ, साळियां
जणां हवा ही कोनीं तो के खावांगा जी
धूळ खांणनैं तो दुनियाँ हीं भौत बडी है!
बीं फोटू सैं एक बात थे नई बताई
क, चांद देस में सोनूं मिलणैं की चानस है
या हथियार उठाकै पैलो
इबकाळै मार्यो है थे अमरीका कै नैलै पै दैलो
आछ्यो नयो बतायो गैलो!
पण जे थे मन्नैं थारै ईं  दूतालय सैं
चुपकै सी कुछ रिपिया दिवाद्यो
तो मैं थानैं मेरे देस को भेद बताद्यूँ
सोनै की खबरां पै प्रतिक्रिया भारत की
मैं थानैं सारी समझाद्यूँ
क्यूँ राजी हो नाँ ? तो इब सुणल्यो
जद सैं बठे चांद कै ऊपर
सोनूं मिलणैं की बातां छापां में आई
बस जदसैं ही भारत का मुरारजी भाई
आंख फाड़कै लगा टकटकी सदा चांद कानीं हीं देखै
खाता पीता सोता उठता, मूँडो सदा बठीनैं राखै
सोचलियो थे, खैर नीं है
थारै पैली ये जे बठे पूँच ज्यावैगा
तो जद थे के भलै भरोगा ?
थे ढूँढोगा जद ताणीं तो चौदा कैरट को पावैगो।

अरै रूसियों ! ये सै बातां तो थारी फोटू हाळी है
इब मैं थानैं मेरै मन की बात बता द् यूँ   
चावो तो थानैं समझावूँ
क, ईं धरती पै सैं सैं ज्यादा थानैं ही दुख होर्यो है के ?
थे निचला बैठ्या रो भाया
बेगा बेगा भाग मनां ऊपर नैं जावो
और चांद पै पूँच मनां चांद नैं लजावो
भारत की भोळी ढाळी कांमणियां का थे-
मनां चौथ का बरत छुटावो!
अरै रूसियों!

'टसकोळी' (राजस्थानी हास्य-व्यंग्य कविताओं अनूठा संग्रह) पुस्तक की पहली कविता,
दिसम्बर १९७९ (1972)
अनुपम प्रिण्टर्स, 
झुंझुणू (राजस्थान)

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विमलेश


विश्वनाथ शर्मा 'विमलेश' राजस्थान के झुंझुनू जिले से हैं | विमलेश ७० के दशक के राजस्थानी भाषा के एक शानदार कवि थे | अपने समय में 'विमलेश' जी ने कई राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलनों में शिरकत की | इन्हें "काका हाथरसी" सम्मान से भी नवाज़ा गया | इन्होने राजस्थानी भाषा में कई हास्य-व्यंग्य कविताओं की रचना की है | शेखावाटी अंचल से संबंध होने के कारण इनकी कविताओं में शेखावाटी बोली का प्रभाव अधिक है |


प्रसिद्ध हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा विमलेश को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे | सुरेन्द्र शर्मा की कविताओं में 'विमलेश' का अक्स अत्यधिक देखने को भी मिलता है | विमलेश की कुछ खास रचनाएँ इस प्रकार हैं,



रामकथा (राजस्थानी में राम काव्य)

नो रस में रस हास्य (हास्य कविता संग्रह)

शकुंतला (प्रबंध काव्य)
गीता (राजस्थानी पद्यानुवाद)
सतपकवानी (राजस्थानी कविता संग्रह)
छेड़खानी (राजस्थानी कविता संग्रह)
कुचरणी (राजस्थानी कविता संग्रह)
ठिठोऴी (राजस्थानी कविता संग्रह)
टसकोऴी (राजस्थानी कविता संग्रह)
कुछ हँसना कुछ रोना (गीत संग्रह)
वेदना (कविता संग्रह)
प्राणों की छाया (गीत संग्रह)
विकास गीत (विकास सम्बन्धी रचनाएँ)
अनामिका (लघु काव्य )
मैंने क्या क्या किया (हास्य कथा संग्रह)
एक मिनिस्टर एक छिपकली (राजस्थानी कविता संग्रह)



'विमलेश' सेवा निवृति तक झुंझुनू शहर के सेठ मोतीलाल महाविद्यालय में कला संकाय में विभागाध्यक्ष के पद पर रहे | शराब के प्रति उनके लगाव और अक्खड़ स्वभाव के कारण उनकी बहुत से रचनाएँ अप्रकाशित भी रह गयीं, वे एक जबरदस्त आशुकवि भी थे | उनकी रचनाएँ ज्यादा लोगों तक नहीं पहुँच पाने का एक कारण राजस्थानी भाषा में साहित्यिक विकास के प्रति लोगो में उपेक्षा का भाव होना भी है | उनके राजस्थानी साहित्य के योगदान को देखते हुए यही कहा जा सकता है की उनको राष्ट्रीय कवि होने बावजूद क्षेत्रीय स्तर पर उन्हें उतनी ख्याति नहीं मिल सकी जिसके वे हक़दार थे |



कुछ वर्ष पूर्व तक मेरी लायब्रेरी में उनकी दो रचनाएँ "एक मिनिस्टर एक छिपकली" और "टसकोऴी" शोभायमान थीं | परन्तु उनमे से पहली वाली रहस्यमयी तरीके से गायब हो चुकी है और अत्यधिक पुराने संस्करण होने दूसरी भी क्षण-भंगुर अवस्था में है | परन्तु इसे मैंने कुछ वर्ष पूर्व कम्प्यूटरीकृत कर लिया था | यहाँ मैं "टसकोऴी" की ही कुछ रचनाएँ साझा करूँगा | मित्रों से आग्रह है की यदि उनके पास विमलेश की अन्य रचनाएँ है तो वे मुझसे संपर्क करें, मैं उनका आभारी होऊंगा |



विमलेश के व्यक्तित्व संबंधी जानकारी मेरे पास बहुत कम है लेकिन उनका निधन, जहाँ तक मुझे अंदाजा है, करीब १९९२-९३ के आस-पास हुआ | आगामी कुछ कड़ियों में "टसकोऴी" की कुछ कवितायेँ पोस्ट करूँगा |

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Thursday, May 12, 2011

कहावत किताब

          पिछले दिनों हमारे शहर के राजकीय पुस्तकालय में नेशनल बुक ट्रस्ट की प्रदर्शनी लगी | बहुत ज्यादा बड़े स्तर की तो नहीं थी पर किताब प्रेमी को तो इतनी सुगंध भी ख़ुशी देती है, कागजों में आने वाली इस सुगंध को वे सब लोग अच्छी तरह पहचानते हैं जो पुस्तकालय, किताबों की रैक या पुराने कार्यालयों में पड़ी गठरियों के आस-पास टहलने का अनुभव ले चुके हैं | खैर, मैंने भी अपनी रूचि के हिसाब से कुछ किताबें लीं | दूसरी ख़ुशी ये देखकर हुई कि एनबीटी की सभी किताबें काफी सस्ती दरों पर उपलब्ध हैं | चेक आउट डेस्क पर पहुँचने पर 50/- में सदस्यों को मिलने वाली छूट का पता लगा तो लगे हाथ हम एन.बी.टी. क्लब के सदस्य भी बन लिए, बिल थोडा और हल्का हो गया |

          खरीदी गयी सभी किताबों में जो थोडा हटके लगी वो थी एस. डब्ल्यू. फैलन की हिन्दुस्तानी कहावत-कोश, अनुवादक और संशोधक कृष्णानंद गुप्त | मूलत: यह स्व. एस. डब्ल्यू. फैलन का प्रसिद्ध ग्रन्थ ए डिक्शनरी ऑफ़ हिन्दुस्तानी प्रोवर्ब्स, सेईंग्स, एम्ब्लेप्स, एफेरिज्म्स है | अनुवाद में कहीं कोई कमी नहीं लगती बल्कि पढ़कर बहुत मज़ा आ गया सो मित्रों से शेयर करने को जी किया | इस पुस्तक में बहुत सी देशी कहावतों का मजेदार संग्रह है और हमारा तो कहावतों के सम्बन्ध में भी काफी ज्ञान बढ़ गया इसे पढ़कर | जहाँ एक और हर कहावत का अर्थ तो समझाया ही गया है वहीँ जरुरत पड़ने पर लोकोक्तियों के साथ जुडी घटनाओं का उल्लेख भी किया गया है |





पुस्तक से निकाली कुछ देशी और ग्रामीण चुहलबाजी की लाईनें,

शिकार के वक्त कुतिया हगासी
काम के वक्त बहाना बनाकर ग़ायब हो जाना

शुगल बेहतर है इश्कबाज़ी का, क्या हकीकी और क्या मजाज़ी का
इश्कबाज़ी का धंधा ही अच्छी चीज़ है फिर चाहे वह अध्यात्मिक हो या लौकिक

१. सारी रात मिमियानी और एक ही बच्चा ब्यानी, (स्त्री.)
२. छ: महीने मिमियानी, तो एक बच्चा बियानी, (ग्रा.)
चिल्ल-पों बहुत पर काम कुछ नहीं

चौबे मरें तो बन्दर हों, बन्दर मरें तो चौबे हों
मथुरा के चौबों पर व्यंग्य में क. | वहां चौबे और बन्दर दोनों ही बहुत हैं

चुचियों में हाड़ टटोलना
जो वस्तु जहाँ है ही नहीं, वहां उसे तलाश करना

गधा गिरे पहाड़ से, मुर्गी के टूटे कान
एक असंबद्ध बात

रांड के चरखे की तरह चला ही जाता है
जो काम कभी रुके ही नहीं, अथवा जो आदमी हमेशा चलता-फिरता ही रहे उसे

कुत्ता पाले वह कुत्ता, सास घर जंवाई कुत्ता,
बहन घर भाई कुत्ता, सब कुत्तों का वह सरदार, जो रहवे बेटी के द्वार
स्पष्ट | जंवाई = दामाद |

पहले चुम्मे गाल काटा
किसी आदमी को पहले-पहल कोई काम सौंपा जाये, और वह उसे चौपट कर दे

पहले पीवे जोगी, बीच में पीवे भोगी, पीछे पीवे रोगी
(१) तमाखू पीने के लिए
(२) भोजन के समय पानी पीने के लिए भी कुछ लोग कहते हैं, पर इस सम्बन्ध में यह कहावत का कोई अंतिम वाक्य नहीं है |

राजा का दूजा, बकरी का तीजा दोनों खराब
राजा के दो लड़के हों तो वे राज्य के लिए आपस में लड़ते हैं,
बकरी के तीन बच्चे हों तो वे भरपेट दूध नहीं पी सकते, क्योंकि उसके दो ही थन होते हैं

रानी गईं हाट, लाईं रीझ कर चक्की के पाट
क्योंकि उन्होंने चक्की का पाट कभी नहीं देखा था | बड़े आदमियों की सनक |

रात पड़ी बूँद, नाम रखा महमूद
रात में ही गर्भ रहा, लड़के के होने में नौ महीने की देर, पर उसका नामकरण कर दिया |
काम के होने के पहले ही अपनी इच्छानुसार उसके नतीजे भी निकाल लेना |

राम के भक्त काठ के गुड़िया, दिन भर ठक-ठक, रात के घुसकुरिया, (भोजपुरी)
उन वैष्णव पुजारियों पर व्यंग्य जो दिन में भगवान् के नाम की माला जपते हैं और रात में दुष्कर्म करते हैं

दीवाली के दिए चाटकर जायेंगे
मुफ्तखोरों के लिए क. |

मुसलमानी में आना कानी क्या ?
जो काम करना ही है उनमें हीले-हवाले की जरूरत क्या ?
मुसलमानी = मुसलमानों की वह रस्म जिसमें छोटे बालक की इन्द्रिय पर का कुछ चमड़ा काट डाला जाता है | सुन्नत |

मुल्ला की दाढ़ी तबर्रुक में गई (मु.)
वाहवाही में सब धन लुट गया|
(कथा है कि कोई मुल्ला यादगार के तौर पर चेलों को चीज़ें बाँट रहे थे | यह देखकर एक मसखरे ने कहा कि मुल्ला जी आपकी दाढ़ी हमेशा मुझे आपकी याद दिलाती रहेगी | यह कहकर उनकी दाढ़ी में से उसने एक बाल उखाड़ लिया | यह देखकर सभी चेले आगे बढे और मुल्ला के बहुत मना करने पर भी उन्होंने एक-एक बाल करके उनकी सारी दाढ़ी नोंच डाली |)

मुल्के खुदा तंग नेस्त, पाये मरा लंग नेस्त, (फा.)
इश्वर का मुल्क थोडा नहीं है और मैं भी पैरों से लंगड़ा नहीं हूँ | किसी उद्योगी पुरुष का कहना, जिसे काम से जवाब दे दिया गया है |

गर्मी की दोपहरी में आराम करते हुए इस पुस्तक को पढना मुझे बड़ा आनंद देता है |