Tuesday, May 24, 2011

रेजगी को कवि-सम्मेलन

एक दफा एक रोकड़ियै नैं
कवि सम्मेलन सुणबां खातर गयो बुलायो
बो कुछ हांस्यो, कुछ मुळकायो
संयोजक, बिन कवियां कै क्यांको कवि सम्मेलन करर्'या है
सारा कवि तो मेरी रोकड़ की पेटी में बन्द पड़्या है
रीतिकाल कै चाँदी कै रिपियै सैं लेकै
छायावाद रहस्यवाद की धेली अर पावली ही नहीं
प्रगतिवाद को आनूं टकड़ो पीसो धेलो
अर प्रयोगवादी दस पीसा, पांच पीसड़ी
और अकविता युग ताणीं की तीन पीसड़ी, एक पीसियो
सारै का सारा युग युग का ये प्रतिनिधि कवि और कवित्री
मेरी रोकड़ की पेटी में हीं कवि सम्मेलन करर्'या है
और कवी सै झूठा है, ये कवि सांचा है
क्यूँ ? मैं तो नित्त हमेशा
सब कवियां नैं आंकै ही लैर्'यां फिरतो देखूं हँ
सुणणूं चावो तो थानैं आं भांत भांत कै-
कवियां की कविता सुणवाद्'यूँ

देखो चांदी को रिपियो आं सब कवियां को सभापति है
नई पुराणीं पीढी का सै कवि कानीं कानीं बैठ्या है
कान लगाकै सुणों, सभापति के कहर्'या है-
"स्यांत स्यांत श्रोतावों, बेटी और बेटियों!
आज आप जो मनैं सभापति कर्'यो आपकी बड़ी किरपा है
पण, थारी निजरां में मैं एकदम बूडो होगो
पण सांची बात बताद्'यूँ क बूडो नीं हूँ
जोध जुवानां नैं भी परै बठाद्'यूँ हूँ मैं
चालूँ हूँ जद इब भी मैं
पैल्यां सैं पाँच गुणूँ तेजी सैं चाल सकूँ हूँ
मैं मेरे छोटे भाई रिपियै कै नोट की जियां नहीं हूँ
जो धरम करम छोडकै रूप भी बदळ लियो बेसरम कठे को
लाडेसर बस पूरी जिन्दगानी में एक बार ही न्हायो
तो कमेच की गोजी में बो भेळो होकै
सूक्योड़ी बिटकणी जियां को होर चिपगो थो
न्हांवणघर में गाबैं पै पैलो मुक्को पड़तां हीं बींका
प्राण पखेरू तो उड़गा था
कूट कूटकै धोयां और निचोयां पाछै तो खाली फूई बंची थी
झूठोई सूर बीर होर्'यो थो
म्हें था तो धोती की अंटी में अटक्या ही
निधड़क होकै चल्या गया था न्हावणघर में
धोतां धोतां म्हारै भी मुक्को मार्'यो थो
पण मारणियैं की ही दो आंगळी टूटगी, तोबा मारी!
बो ही तेल रगड़ाबो कर्'यो आठ दिन तांणीं
आं जीवां को कै बिगड़ै थो
मेरै कहणै को मतलब है
आज जमानूँ जिसो ळिळपळो हुयो
बिसा ही सिक्का होगा
और बिसा ही कवी, बिसी ही कविता होगी

खैर- सबसे पहले आज आपको मेरी पत्नी
धवल अठन्नी बाई, नहीं अठन्नी देवी की कविता सुणवाता
जिससे मेरा जन्म जन्म तक रहा पती-पत्नी का नाता
पढ़ो अठन्नी देवी ?
एक कांगणींदार पाड़ की धोती बांध्यां
मूँ पै घणीं उदासी लियां अठन्नी बाई आगै आई
हाथ जोड़ती सबनैं कविता इयां सुणाई
"मैं रुपये की अर्धांगिनि थी अब हूँ गोली बांदी
कोई दुस्ट निकाल लेग्या मेरी सारी चांदी
बिसम आर्थिक संकट आया आई ऐसी आंधी
सब जग बना रहस्य समय की गति न किसी ने बांधी
प्रियतम के ही साथ आज मैं पड़ी खाट पर मांदी
कोई दुस्ट निकाल ले गया मेरी सारी चांदी

वाह वाह अठन्नी देवी!
मेरा सारा घाव हर्'या कर दिया
पण इब भूल ज्याणैं में हीं सार है
हां तो अब पावली बाई की कविता सुणो
सुणतां हीं पावली बाई स्टेज पै आई
कमर कुछ तो झुक्योड़ी थी कुछ और झुकाई
सफेद बुरकि धोती को पल्लो खींचकै बोली- "मैं क्या बोलूँ
आज हृदय की गाठों को मैं कैसे खोलूं ?"
एक चुलबुलो श्रोता बोल्यो-
"अरै बावळी हिरदै की गांठाँ नैं पैल्यां तू इतणीं उळजाई क्यूं थी"

हां- तो मेरी कविता है जग छाया
जग छाया काया छाया मन क्यों भरमाया ?
कहीं धूप है कहीं छांवली, कहीं अठन्नी कहीं पावली
कहीं सयानी कहीं बावली, सब प्रभु की माया
जग छाया काया छाया, मन क्यों भरमाया

वाह क्या बात है पावली बाई
इसी जोर की कविता सुणाई क
आदां'क कै समज में आई, आदां'क कै कोनी आई
अब नई पीढी को दस पीसो आपकी कविता सुणावैगो
कविता कै सागै सागै आपको उपनाम भी बतावैगो
पावली बाई बेठी भी नहीं थी क
दस पीसियो खड़्यो होतो होतो पावली बाई सैं टकरागो
पावली बाई तो आखड़कै भी सम्हळगी
पण दस पीसियै को पजामूँ फाटगो
पाछै भी हिम्मत बटोरकै कविता सुरू करी-
"नाम तो मेरो दस पीसो है
पण कवितां में मेरो उपनाम पोस्टकार्ड है"
जनम सैं प्रयोगवादी होकर भी कर्म सैं प्रगतिवादी हूँ
क्यूँक मेरो नाम पोस्टकार्ड है
मुरारजी देसाई सरीखा मेरा गार्ड है
छोटै कवियां नैं बै घणूँ बढ़ावो देवै
जींसैं हीं मेरी उन्नति होती गई कीमत चडती गई
छै पीसां सै सीदो दस पीसां पै आगो
जद तो इबार पावली बाई सैं हीं टकरागो!
तो बोल मुरारजी भाई की जे, हां तो कविता है-
मैं दस पीसो मैं पोस्टकार्ड
मैं घूम्यायो सब नगर गांव, सब गळी गळी सब ठौर ठांव
मैं फिरतो ही रूं बण्यो लार्ड, मैं पोस्टकार्ड-०.
गाडी देखी देख्यो जहाज मेट्रो लिबर्टी और नाज
बासो देख्यो, देख्यो गेलार्ड, मैं पोस्टकार्ड-०.
बोल मुरारजी भाई की जै।

दस पीसै के बाद पुराणूँ टकड़ो आकै कविता गाई
"अब हम हैं किस काम के ?
वैसे भरी जवानी में भी हम थे चार छदाम के
बिधना से मोटापा पाया, पर वह भी कुछ काम न आया
चलते ही लड़खड़ा गये हम, औंधे गिरे धड़ाम से
अब हम हैं किस काम के!
हलवाई ने हमें टटोला, वर्षों तक हमने घी तोला
नये बाट आकर अब हमको भक्त बना गये राम के
बोल सिया राम सिया राम सिया राम"

इबकै एक हास्यरस कै एक पुराणैं कोचकै हाळै
पीसै को लंबर आयो तो पबलिक हांसी
आतां हीं फल्डाटै सैं बो कविता पडणीं सुरू कर दई
"रै मेरो काळजो काडकै कुण लेगो रे ?
रै मेरै बीच में कोचको कुण करगो रे ?
रै ईं जग में मैं हीं इतणूं फूट्योड़ो तकदीर-
कियां लेकर आयो जो सनीवार की सनीवार
डाकोतां कै तेल सैं भर् योड़ै लोटै में
सै ज्यादातर मन्नैं हीं पटक्यो!
बर बर में तेलिया न्हांण कर उखतागो रे
रै मेरो काळजो काडकै कुण लेगो रे!"

इबकैं घणीं नई पीड़ी की तीन पीसड़ी
गीत सुणावनैं माइक पै आगै आई-
"मैं किसको लिख भेजूँ पाती
प्रियतम एक फूँक मारे तो मैं चौराहे तक उड़ जाती
मैंने क्या पाया जीवन में, भरी हुई कुण्ठाएँ मन में
पांचों बहिनें पर हाथों में जा प्रियतम को पान खिलाती
मैं किसको लिख भेजूँ पाती"
एक मसकरो श्रोता बींकै सुर में हीं सुर मिला
दूर सैं गावण लाग्यो
"क्यूँ कररी तूँ रोटी ठंडी खा क्यूँ ले नां ताती ताती"
"मै किसको लिख भेजूँ पाती!"

चांणचके ही बठै मंच पै भगदड़ सी माची
सब कवियां अर श्रोतावां में फुसफुसाट सी होवण लागी
कवियां कै मंच पै नोट सौ को आगो थो
सभापती जी खुद स्वागत करबानैं भाग्या
आवो आवो अठे पधारो
घणैं दिनां सैं थारा दरसण मेळा होया
इब तो थे भी माइक पै आकरकै कुछ इमरत बरसावो
"हां हां- थे भी कुछ सुणवावो" का ही रोळा होवण लाग्या
आग्रह सुणकै सौ को नोट घणूँ सुसकातो
अर थोड़ी हेकड़ी जतातो
खड़्यो हो’र माइक पकड़्यो तो सब चुपचाप स्यांत होगा था
जाणैं कोई चिड़ियां में भाठो पड़गो हो

"क्षमा कीजियेगा हमको कुछ देर हो गई
वैसे इन सम्मेलनादि में मैं बिलकुल नहिं आता जाता
आप जानते हैं मुझको कितने दतर संभालने पड़ते
छोटे छोटे फंक’शंस में आने की फुरसत ही नहिं मिलती
आज बैंक की और दफ्तरों की छुट्टी थी
सोचा चलो चलै हो आयें
कितनां काम करना पड़ता है
सच पूछो तो वर्षों से तो बाल कटाने की
फुरसत भी नहीं मिली थी
अभी अभी मैं बाल कटाकर ही आया हूँ
देखो पहले से कितना छोटा लगता हूँ
पहले से शायद कुछ सुन्दर भी लगता हूँ
एक सरोता हाथ जोड़तो उठ्यो’र बोल्यो-
"माई बाप, कविराज
आपको कांईं बाळ बढाणूँ, कांईं बाळ कटाणूँ
सांची तो या है क आपतो-
दोन्यूँ रूपां में हीं म्हांनैं घणां प्यारा लागो हो
जांणैं थानैं काळजियै सैं हीं चिपकाल्यां"

ठीक है, ठीक है, हां तो बच्चों!
कविता तो हम आज आपको क्या सुनवायें
वैसे तो हमनें जीवन भर बहुत कहा है
कहने को बाकी अब कुछ भी नहीं रहा है
फिर भी कुछ दो-चार पंक्तियां कह देता हूँ
"भांति भांति के फूल धरा पर खिलते मिटते फिर खिलते हैं
किन्तु अंत में आकर के ये सब मेरे में हीं मिलते हैं!"
यह रहस्यवादी रचना है
वैसे रहस्यवादी बहुत हुए हैं
एक थे नां कवि निराला ?
उससे हमारी खूब चलती थी
मुझे देखकर तो उसकी आंखें जलती थीं
"नहीं माई बाप निराला जी सैं
आपकी कविता घणीं भारी पड़ै
आप तो आप हो, सब कवियां का साक्षात बाप हो!"

सुणकै सब ताळियां बजाई
सौ को नोट झूमतो-अकड़तो
सभापति जी कै गींडवै पै जाकै बैठ्यो
इब इत्तै बड़ै कवि कै बाद कविता कुण सुणावै
सभापति जी कई जणां नै बुलावै
(पण) कोई भी आगै नीं आवै
सभापती जी खुद भी सिट्टी पिट्टी भूल्या
लाचार होकै कवि-सम्मेलन खतम करणूं पड़'यो-

सम्मेलन खतम होतां हीं
और और कवि तो बापड़ा अळसायोड़ा सा मूं लेकै
आप आपकै रस्तै लाग्या
और घणां सारा श्रोता भेळा होकरकै
सौ कै नोट कवीं नैं च्यारूं कानीं सैं हीं घेर लिया
बै घणीं घणीं तारीफ करै अर न्यूंता देवै
"आपकी बोली में तो सा कांई मिठास है
आप सामैं खड़'या भी कित्ता सोवणां लागो सा
आपनैं काल म्हांरै घरां हीं चाय पीणीं पड़ैगी
मेरी वाइफ तो थारी भौत तारीफ सुणराखी है
पण आज तांणीं थानैं देख्या नीं है
बा थांसूं घणूं प्रेम करै है"

"एक वाइफ ही के आँपै तो सारी दुनिया मरै है"
थारै दरसणाँ नैं सब तरसै है
जीं घर में आप जावो बठे इमरत को में बरसै है
थारी जीत सैं हों ये सारा दीवा परकासै है
थे हाँसो तो सारी दुनियां हाँसे है
सो, हे सौ का नोट कविराज
जिसा थे आज कवि-सम्मेलन नैं टूठ्यो,
बिसा सबनैं टूठियो
कहतै सुणतै नैं अर हुँकारा भरतै नैं
सैं नै टूठियो।



'टसकोळी' (1972)

_________________________________________

(0.) रेजगी = चिल्लर; (1.) मुळकायो = मुस्कुराया; (2.) ताणीं = तक; (3.) लैर्'यां = पीछे; (4.) कानीं कानीं = सब तरफ, इधर-उधर; (5.) कमेच = कमीज़; (6.) गोजी = जेब; (7.) भेळो = सिकुड़ा हुआ; (8.) ळिळपळो = लिजलिज़ा; (9.) आखड़कै = लड़खड़ा कर; (10.) कोचकै = छेद, छिद्र; (11.) हाळै = वाले; (12.) फल्डाटै सै = फुर्ती से; (13.) काडकै = निकाल कर; (14.) ताती = गर्म; (15.) चांणचके = अचानक; (16.) रोळा = हो-हल्ला, शोरगुल; (17.) भाठो = पत्थर; (18.) गींडवै = मसन्द,गद्दी; (19.) अळसायोड़ा = बासी, उदास, लिजलिज़ा; (20.) टूठ्यो = कृपा बरसाई (मुख्य रूप से गणेश देवतादि की कथाओं के अंत में कहा जाने वाला नियमित वाक्य, मसलन "जैसा फलां-फलां पर टूठ्या बीसा म्हारे पर भी टूठियो, हम पर भी वैसी कृपा बरसाना)




सम्बंधित आलेख :
विमलेश

ल्यूना ९

No comments:

Post a Comment