Tuesday, October 6, 2009

ज्योतिष अर्थात अध्यात्म_1

पिछली पोस्ट से जारी...

सूर्य के संबंध में कुछ बातें जान लेनी जरूरी हैं। सबसे पहली तो यह बात जान लेनी जरूरी है कि वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य से समस्त सौर परिवार का--मंगल का, बृहस्पति का, चंद्र का, पृथ्वी का जन्म हुआ है। ये सब सूर्य के ही अंग हैं। फिर पृथ्वी पर जीवन का जन्म हुआ--पौधों से लेकर मनुष्य तक। मनुष्य पृथ्वी का अंग है, पृथ्वी सूरज का अंग है। अगर हम इसे ऐसा समझें--एक मां है, उसकी एक बेटी है और उसकी एक बेटी है। उन तीनों के शरीर में एक ही रक्त प्रवाहित होता है, उन तीनों के शरीर का निर्माण एक ही तरह के सेल्स से, एक ही तरह के कोष्ठों से होता है। और वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं एम्पैथी का। जो चीजें एक से ही पैदा होती हैं उनके भीतर एक अंतर-समानुभूति होती है। सूर्य से पृथ्वी पैदा होती है, पृथ्वी से हम सबके शरीर निर्मित होते हैं। थोड़ा ही दूर फासले पर सूरज हमारा महापिता है। सूर्य पर जो भी घटित होता है वह हमारे रोम-रोम में स्पंदित होता है। होगा ही। क्योंकि हमारा रोम-रोम भी सूर्य से ही निर्मित है। सूर्य इतना दूर दिखाई पड़ता है, इतना दूर नहीं है। हमारे रक्त के एक-एक कण में और हड्डी के एक-एक टुकड़े में सूर्य के ही अणुओं का वास है। हम सूर्य के ही टुकड़े हैं। और यदि सूर्य से हम प्रभावित होते हों तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं--एम्पैथी है, समानुभूति है। समानुभूति को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है, तो ज्योतिष के एक आयाम में प्रवेश हो सकेगा। कल मैंने जुड़वां बच्चों की बात आपसे की। अगर एक ही अंडे से पैदा हुए दो बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया जाए--और इस तरह के बहुत से प्रयोग पिछले पचास वर्षों में किए गए हैं। एक ही अंडज जुड़वां बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया गया है, फिर दोनों कमरों में एक साथ घंटी बजाई गई है और दोनों बच्चों को कहा गया है, उनको जो पहला खयाल आता हो वे उसे कागज पर लिख लें, या जो पहला चित्र उनके दिमाग में आता हो वे उसे कागज पर बना लें। और बड़ी हैरानी की बात है कि अगर बीस चित्र बनवाए गए हैं दोनों बच्चों से तो उसमें नब्बे प्रतिशत दोनों बच्चों के चित्र एक जैसे हैं। उनके मन में जो पहली विचारधारा पैदा होती है, जो पहला शब्द बनता है या जो पहला चित्र बनता है, ठीक उसके ही करीब वैसा ही विचार और वैसा ही शब्द दूसरे जुड़वां बच्चे के भीतर भी बनता और निर्मित होता है। इसे वैज्ञानिक कहते हैं एम्पैथी। इन दोनों के बीच इतनी समानता है कि ये एक से प्रतिध्वनित होते हैं। इन दोनों के भीतर अनजाने मार्गों से जैसे जोड़ है, कोई कम्युनिकेशन है। सूर्य और पृथ्वी के बीच ऐसा ही कम्युनिकेशन है, ऐसा ही संवाद है प्रतिपल। और पृथ्वी और मनुष्य के बीच भी इसी तरह का संवाद है प्रतिपल। तो सूर्य, पृथ्वी और मनुष्य, उन तीनों के बीच निरंतर संवाद है, एक निरंतर डायलाग है। लेकिन वह जो संवाद है, डायलाग है, वह बहुत गुह्य है और बहुत आंतरिक है और बहुत सूक्ष्म है। उसके संबंध में थोड़ी सी बातें समझेंगे तो खयाल में आएगा। अमरीका में एक रिसर्च सेंटर है--ट्री रिंग रिसर्च सेंटर। वृक्षों में जो, वृक्ष आप काटें तो वृक्ष के तने में आपको बहुत से रिंग्स, बहुत से वर्तुल दिखाई पड़ेंगे। फर्नीचर पर जो सौंदर्य मालूम पड़ता है वह उन्हीं वर्तुलों के कारण है। पचास वर्ष से यह रिसर्च केंद्र, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं उन पर काम कर रहा है। तो प्रोफेसर डगलस अब उसके डायरेक्टर हैं, जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं, चक्र बन जाते हैं, उन पर ही पूरा व्यय किया है। बहुत से तथ्य हाथ लगे हैं। पहला तथ्य तो सभी को ज्ञात है साधारणतः कि वृक्ष की उम्र उसमें बने हुए रिंग्स के द्वारा जानी जा सकती है, जानी जाती है। क्योंकि प्रतिवर्ष एक रिंग वृक्ष में निर्मित होता है। एक छाल वृक्ष छोड़ देता है, अपनी चमड़ी छोड़ देता है, और एक रिंग निर्मित हो जाता है। वृक्ष की कितनी उम्र है, उसके भीतर कितने रिंग बने हैं, इनसे तय हो जाता है। अगर वह पचास साल पुराना है, उसने पचास पतझड़ देखे हैं, तो पचास रिंग उसके तने में निर्मित हो जाते हैं। और हैरानी की बात यह है कि इन तनों पर जो रिंग निर्मित होते हैं वे मौसम की भी खबर देते हैं! अगर मौसम बहुत गर्म और गीला रहा हो तो जो रिंग है वह चौड़ा निर्मित होता है। अगर मौसम बहुत सर्द और सूखा रहा हो तो जो रिंग है वह बहुत संकरा निर्मित होता है। हजारों साल पुरानी लकड़ी को काट कर पता लगाया जा सकता है कि उस वर्ष जब यह रिंग बना था तो मौसम कैसा था। बहुत वर्षा हुई थी या नहीं हुई थी। सूखा पड़ा था या नहीं पड़ा था। अगर बुद्ध ने कहा है कि इस वर्ष बहुत वर्षा हुई, तो जिस बोधिवृक्ष के नीचे वे बैठे थे वह भी खबर देगा कि वर्षा हुई कि नहीं हुई। बुद्ध से भूल-चूक हो जाए, वह जो वृक्ष है, बोधिवृक्ष, उससे भूल-चूक नहीं होती। उसका रिंग बड़ा होगा, छोटा होगा। डगलस इन वर्तुलों की खोज करते-करते एक ऐसी जगह पहुंच गया जिसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। उसने अनुभव किया कि प्रत्येक ग्यारहवें वर्ष पर रिंग जितना बड़ा होता है उतना फिर कभी बड़ा नहीं होता। और वह ग्यारह वर्ष वही वर्ष है जब सूरज पर सर्वाधिक गतिविधि होती है। हर ग्यारहवें वर्ष पर सूरज में एक रिद्म, एक लयबद्धता है, हर ग्यारह वर्ष पर सूरज बहुत सक्रिय हो जाता है। उस पर रेडियो एक्टिविटी बहुत तीव्र होती है। सारी पृथ्वी पर उस वर्ष सभी वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं। एकाध जगह नहीं, एकाध जंगल में नहीं--सारी पृथ्वी पर, सारे वृक्ष उस वर्ष उस रेडियो एक्टिविटी से अपनी रक्षा करने के लिए मोटा रिंग बनाते हैं। वह जो सूरज पर तीव्र घटना घटती है ऊर्जा की, उससे बचाव के लिए उनको मोटी चमड़ी बनानी पड़ती है उस वर्ष, हर ग्यारह वर्ष। इससे वैज्ञानिकों में एक नया शब्द और एक नयी बात शुरू हुई। मौसम सब जगह अलग होते हैं। यहां सर्दी है, कहीं गर्मी है, कहीं वर्षा है, कहीं शीत है--सब जगह मौसम अलग हैं। इसलिए अब तक कभी पृथ्वी का मौसम, क्लाइमेट ऑफ दि अर्थ--ऐसा कोई शब्द प्रयोग नहीं होता था। लेकिन अब डगलस ने इस शब्द का प्रयोग करना शुरू किया है--क्लाइमेट ऑफ दि अर्थ। ये सब छोटे-मोटे फर्क तो हैं ही, लेकिन पूरी पृथ्वी पर भी सूरज के कारण एक विशेष मौसम चलता है। जो हम नहीं पकड़ पाते, लेकिन वृक्ष पकड़ते हैं। हर ग्यारहवें वर्ष पर वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं, फिर रिंग छोटे होते जाते हैं। फिर पांच साल के बाद बड़े होने शुरू होते हैं, फिर ग्यारहवें साल पर जाकर पूरे बड़े हो जाते हैं। अगर वृक्ष इतने संवेदनशील हैं और सूरज पर होती हुई कोई भी घटना को इतनी व्यवस्था से अंकित करते हैं, तो क्या आदमी के चित्त में भी कोई पर्त होगी, क्या आदमी के शरीर में भी कोई संवेदना का सूक्ष्म रूप होगा, क्या आदमी भी कोई रिंग और वर्तुल निर्मित करता होगा अपने व्यक्तित्व में? अब तक साफ नहीं हो सका। अभी तक वैज्ञानिकों को साफ नहीं है कोई बात कि आदमी के भीतर क्या होता है। लेकिन यह असंभव मालूम पड़ता है कि जब वृक्ष भी सूर्य पर घटती घटनाओं को संवेदित करते हों तो आदमी किसी भांति संवेदित न करता हो। ज्योतिष, जो जगत में कहीं भी घटित होता है वह मनुष्य के चित्त में भी घटित होता है, इसकी ही खोज है। इस पर हम पीछे बात करेंगे कि मनुष्य भी वृक्षों जैसी ही खबरें अपने भीतर लिए चलता है, लेकिन उसे खोलने का ढंग उतना आसान नहीं है जितना वृक्ष को खोलने का ढंग आसान है। वृक्ष को काट कर जितनी सुविधा से हम पता लगा लेते हैं उतनी सुविधा से आदमी को काट कर पता नहीं लगा सकते हैं। आदमी को काटना सूक्ष्म मामला है। और आदमी के पास चित्त है, इसलिए आदमी का शरीर उन घटनाओं को नहीं रिकार्ड करता, चित्त रिकार्ड करता है। वृक्षों के पास चित्त नहीं है, इसलिए शरीर ही उन घटनाओं को रिकार्ड करता है। एक और बात इस संबंध में खयाल ले लेने जैसी है। जैसा मैंने कहा कि प्रति ग्यारह वर्ष में सूरज पर तीव्र रेडियो एक्टिविटी, तीव्र वैद्युतिक तूफान चलते हैं, ऐसा प्रति ग्यारह वर्ष पर एक रिद्म है। ठीक ऐसा ही एक दूसरा बड़ा रिद्म भी पता चलना शुरू हुआ है, वह है नब्बे वर्ष का, सूरज के ऊपर। और वह और हैरान करने वाला है। और यह जो मैं कह रहा हूं ये सब वैज्ञानिक तथ्य हैं। ज्योतिषी इस संबंध में कुछ नहीं कहते हैं। लेकिन मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि इनके आधार पर ज्योतिष को वैज्ञानिक ढंग से समझना आपके लिए आसान हो सकेगा। नब्बे वर्ष का एक दूसरा वर्तुल है जो कि अनुभव किया गया है। उसके अनुभव की कथा बड़ी अदभुत है। फैरोह ने इजिप्त में आज से चार हजार साल पहले अपने वैज्ञानिकों को कहा कि नील नदी में जब भी पानी घटता है, बढ़ता है, उसका पूरा ब्योरा रखा जाए। और अकेली नील एक ऐसी नदी है, जिसकी चार हजार वर्ष की बायोग्राफी है। और किसी नदी की कोई बायोग्राफी नहीं है। उसकी जीवन-कथा है पूरी। कब उसमें इंच भर पानी बढ़ा है, तो उसका पूरा रिकार्ड है--चार हजार वर्ष, फैरोह के जमाने से लेकर आज तक। फैरोह का अर्थ होता है सूर्य, इजिप्त की भाषा में। फैरोह, जो इजिप्त का सम्राट अपना नाम रखता था, वह सूर्य के आधार पर था। और इजिप्त में ऐसा खयाल था कि सूर्य और नदी के बीच निरंतर संवाद है। तो फैरोह, जो कि सूर्य का भक्त था, उसने कहा कि नील का पूरा रिकार्ड रखा जाए। सूर्य के संबंध में तो हमें अभी कुछ पता नहीं है, लेकिन कभी तो सूर्य के संबंध में भी पता हो जाएगा, तब यह रिकार्ड काम दे सकेगा। तो चार हजार साल की पूरी कथा है नील नदी की। उसमें इंच भर पानी कब बढ़ा, इंच भर कब कम हुआ; कब उसमें पूर आया, कब पूर नहीं आया; कब नदी बहुत तेजी से बही और कब नदी बहुत धीमी बही, इसका चार हजार वर्ष का लंबा इतिहास इंच-इंच उपलब्ध है। इजिप्त के एक विद्वान तस्मान ने पूरे नील की कथा लिखी। और अब सूर्य के संबंध में वे बातें ज्ञात हो गईं जो फैरोह के वक्त ज्ञात नहीं थीं और जिनके लिए फैरोह ने कहा था प्रतीक्षा करना! इन चार हजार साल में जो कुछ भी नील नदी में घटित हुआ है वह सूरज से संबंधित है। और नब्बे वर्ष की रिद्म का पता चलता है। हर नब्बे वर्ष में सूर्य पर एक अभूतपूर्व घटना घटती है। वह घटना ठीक वैसी ही है जिसे हम मृत्यु कह सकते हैं--या जन्म कह सकते हैं। ऐसा समझ लें कि सूर्य नब्बे वर्ष में पैंतालीस वर्ष तक जवान होता है और पैंतालीस वर्ष तक बूढ़ा होता है। उसके भीतर जो ऊर्जा के प्रवाह बहते हैं वे पैंतालीस वर्ष तक जो जवानी की तरफ बढ़ते हैं, क्लाइमेक्स की तरफ जाते हैं, सूरज जैसे जवान होता चला जाता है। और पैंतालीस साल के बाद ढलना शुरू हो जाता है, उसकी उम्र जैसे नीचे गिरने लगती है, और नब्बे वर्ष में सूर्य बिलकुल बूढ़ा हो जाता है। नब्बे वर्ष में जब सूर्य बूढ़ा होता है तब सारी पृथ्वी भूकंपों से भर जाती है। भूकंपों का संबंध नब्बे वर्ष के वर्तुल से है। सूर्य उसके बाद फिर जवान होना शुरू होता है। वह बड़ी भारी घटना है; क्योंकि सूरज पर इतना परिवर्तन होता है कि पृथ्वी उससे कंपित हो जाए, यह बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन जब पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु भूकंपों से भर जाती है तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ नहीं होता होगा? पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु, जब सूरज पर परिवर्तन होते हैं तो कंपित हो जाती है, भूकंपों से भर जाती है, तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ भी न होता होगा! ज्योतिषी सिर्फ यही पूछते रहे हैं। वे कहते हैं, यह असंभव है। पता हो तुम्हें या न पता हो, लेकिन आदमी की काया भी अछूती नहीं रह सकती। पैंतालीस वर्ष जब सूरज जवान होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होते हैं उनका स्वास्थ्य अदभुत रूप से अच्छा होगा। और जब पैंतालीस वर्ष सूरज बूढ़ा होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होंगे उनका स्वास्थ्य कभी भी अच्छा नहीं हो पाता। जब सूरज खुद ही ढलाव पर होता है तब जो बच्चे पैदा होते हैं उनकी हालत ठीक वैसी है जैसे पूरब को नाव ले जानी हो और पश्चिम को हवा बहती हो। तो फिर बहुत डांड चलाने पड़ते हैं, फिर पतवार बहुत चलानी पड़ती है और पाल काम नहीं करते। फिर पाल खोल कर नाव नहीं ले जाई जा सकती, क्योंकि उलटे बहना पड़ता है। जब सूरज ही बूढ़ा होता है, सूरज जो कि प्राण है सारे सौर परिवार का, तब जिसको भी जवान होना है उसे उलटी धारा में तैरना पड़ता है--हवा के खिलाफ। उसके लिए संघर्ष भारी है। जब सूरज ही जवान हो रहा होता है तो पूरा सौर परिवार शक्तियों से भरा होता है और उठान की तरफ होता है। तब जो पैदा होता है, वह जैसे पाल वाली नाव में बैठ गया। पूरब की तरफ हवाएं बह रही हैं, उसे डांड भी नहीं चलानी है, पतवार भी नहीं चलानी है, श्रम भी नहीं करना है, नाव खुद बह जाएगी। पाल खोल देना है, हवाएं नाव को ले जाएंगी।
क्रमशः अगली पोस्ट पर...

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