Monday, November 9, 2009

मुसलमान क्यों न गाएँ वन्दे मातरम्

जमीयते-उलेमा-ए-हिंद ने फिजूल ही बर्रे के छत्ते में हाथ दल दिया है | देवबंद का जो दारुल-उलूम योग के पक्ष में और आतंकवाद के विरूद्व फतवा जारी करता है, वह वन्दे मातरम के विरूद्व क्यों है, यह समझ में नहीं आता | गृहमंत्री चिदंबरम और स्वामी रामदेव का सम्मान करने वाला देवबंद वन्दे मातरम को रद्द करे, इससे बढ़कर विचित्र बात क्या हो सकती है ? इसी तरह यह बात भी समझ में नहीं आती की देवबंदियों को देशद्रोही कहा जा रहा है | जो वन्दे मातरम् न गाये वह देशद्रोही कैसे हो गया ? वन्दे मातरम् तो अभी डेढ़ सौ साल पहले पैदा हुआ है | क्या उसके पहले ये देश नहीं था ? उस समय लोग क्या गाते थे ? क्या वे देशद्रोही थे ? जो वन्दे मातरम् गाने को देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बना रहे हैं, उनमे से ज्यादातर लोगों को तो वह पूरा लंबा गीत याद भी नहीं होता और याद भी है तो वे उसका अर्थ भी नहीं जानते | उन्हें न बंगला आती है न संस्कृत ! जब वन्दे मातरम् गाया जाता है तो कितने ही लोग चुप रहते हैं | क्या वे देशभक्त नहीं हैं ? जो न गाना चाहे, क्या उसके गले में ऊँगली डालकर राष्ट्रगीत गवाया जायेगा ? जैसे गुलाब में खुशबू अपने आप पैदा होती है, वैसे ही नागरिकों में राष्ट्रभक्ति पनपनी चाहिए | जिस गुलाब में खुशबू नहीं होगी, उसे कौन सुन्घेगा ? जो अपने राष्ट्रगीत, राष्ट्रध्वज और संविधान का सम्मान नहीं करता, उसका सम्मान कौन करेगा ? राष्ट्रगीत के खिलाफ जो फतवे जारी कर रहे हैं, वे देशद्रोही नहीं बुद्धिद्रोही हैं |

वन्दे मातरम् में ऐसा क्या है की मुसलमान उसे न गाएँ ? बंकिमचंद्र ने जो वन्दे मातरम् 1875 में लिखा था, उसके सिर्फ पहले दो पद हमारे राष्ट्रगीत के रूप में गाए जाते हैं | इन दो पदों में एक शब्द भी ऐसा नहीं है, जो इस्लाम के विरूद्व हो | फतवा जारी करने वाले लोगों को पता नहीं कि 'वन्दे' शब्द का सही अर्थ क्या है | संस्कृत का 'वन्दे' शब्द वंद धातु से बना है, जिसका मूल अर्थ है, प्रणाम, नमस्कार, सम्मान, प्रशंसा ! कुछ शब्दकोशों में पूजा-अर्चना भी लिखा हुआ है लेकिन मातृभूमि कि पूजा कैसे होगी ? लाखों वर्गमील में फैली भारत-भूमि की कोई कैसे पूजा कर सकता है ? वह कोई व्यक्ति नहीं, वह कोई मूर्ति नहीं, वह कोई पेड़-पौधा नहीं, वह कोई चित्र या प्रतिमा नहीं | उसे किसी मंदिर या देवालय में कैद नहीं किया जा सकता | कोई उसकी आरती कैसे उतारेगा, परिक्रमा कैसे लगाएगा, उसका अभिषेक कैसे करेगा ? यहाँ मातृभूमि की वंदना का सीधा-साधा अर्थ है, अपने देश के प्रति श्रधा और सम्मान ! कौनसा इस्लामी देश है, जो अपनी मातृभूमि के प्रति श्रधा रखने का विरोध करता है | हजरत मुहम्मद ने तो यहाँ तक कहा है कि माता के पैरों तले स्वर्ग होता है |

मां का मुकाम इतना ऊँचा है कि हमारे राष्ट्रगीत में राष्ट्रभूमि को मातृभूमि कहा गया है | अफगान लोगों से ही हमने 'मादरे-वतन' शब्द सीखा है | क्या वे लोग मुसलमान नहीं हैं ? बांग्लादेश के राष्ट्रगान में मातृभूमि का उल्लेख चार बार आया है | क्या सरे बांग्लादेशी काफिर हैं ? इंडोनेशिया, तुर्की और सउदी अरब के राष्ट्रगीतों में भी मातृभूमि के सौंदर्य पर जान लुटाई गयी है | क्या ये राष्ट्र इस्लाम का उल्लंघन कर रहे हैं | मातृभूमि कि वंदना पर हिन्दुओं का एकाधिकार नहीं है | यह धारणा सम्पूर्ण एशिया में फैली है | इसे हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध सभी मानते हैं | मातृभूमि की मूर्तिपूजा जैसी पूजा तो बिलकुल असंभव है लेकिन दिमागी तौर पर अगर यह मान लिया जाये कि मातृभूमि पूज्य है तो इससे तौहीद (एकेश्वरवाद) का विरोध कैसे हो सकता है ? क्या मातृभूमि अल्लाह की रकीब (प्रतिद्वंद्वी) बन सकती है ? मातृभूमि की जो पूजा करेगा, क्या वह यह मानेगा कि उसके दो अल्लाह हैं, दो इश्वर हैं, दो गॉड हैं, दो जिहोवा हैं, दो अहोरमज्द हैं ? बिलकुल नहीं | दो ईश्वर तो हो ही नहीं सकते | यदि मातृभूमि पूज्य है तो अल्लाह परमपूज्य है | दोनों में न तो कोई तुलना है न बराबरी है |

इसलिए वन्दे मातरम् को तौहीद के विरूद्व खडा करना और उसे इस्लाम-विरोधी बताना बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं लगता | जहाँ तक वन्दे मातरम् के उर्दू तर्जुमे सवाल है, उसमे 'वन्दे' मतलब है, सलाम या तस्लीमात ! कहीं भी 'वन्दे' शब्द को इबादत या पूजा नहीं कहा गया है | क्या किसी को भी सलाम करने कि इस्लाम में मनाही है ? इसी तरह वन्दे मातरम् के अंग्रेजी में 'वन्दे' को 'सेल्यूट' कहा जाता है | उसे कहीं भी पूजा '(वरशिप)' नहीं कहा गया है | इसीलिए वन्दे मातरम् को बुतपरस्ती से जोड़ने में कोई तुक दिखाई नहीं पड़ती | इसके अलावा क्या वन्दे मातरम् कभी किसी हिन्दू मंदिर या देवालय में गया जाता है ? कभी नहीं क्योंकि वह धर्मगीत नहीं राष्ट्रगीत है |

तो कुछ मुस्लिम नेता 'वन्दे मातरम्' का विरोध क्यों करते हैं ? सच्चाई तो यह है कि वन्दे मातरम् का विरोध मुसलमानों ने नहीं मुस्लिम लीग ने किया था | बंगाल के हिन्दुओं और मुसलमानों ने यही गीत एक साथ गाकर बंग-भंग का विरोध किया था, कांग्रेस के अधिवेशनों में मुसलमान अध्यक्षों की सदारत में यह गीत हमेशा लाखों हिन्दू और मुसलमानों ने साथ-साथ गया है, गाँधी के हिन्दू और मुस्लमान सत्याग्रहियों ने चाहे वे बंगाली हों या पठान, वन्दे मातरम् गाते-गाते अपने सीने पर अंग्रेजों की गोलियां झेलीं हैं | मुस्लिम लीग में शामिल होने के पहले तक स्वयं मुहम्मद अली जिन्ना वन्दे मातरम् गाया करते थे | मौलाना आजाद से बढ़कर इस्लाम को कौन मुसलमान जनता था ? उन्होंने स्वयं इस गीत को गाने की सिफारिश की थी | मुस्लिम लीग को सिर्फ वन्दे मातरम् से ऐतराज़ नहीं था, हर उस चीज़ से उसे नफरत थी, जो हिन्दू और मुसलमान को जोड़े रखती थी | मुस्लिम लीग ने वन्दे मातरम् को बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' और उन सन्यासियों से जोड़ दिया, जिन्होंने उसे उपन्यास के खलनायकों के विरूद्व गाया था | वे खलनायक संयोगवश मुस्लिम जागीरदार थे | मुस्लिम लीगी यह भूल गए की 'आनंदमठ' छपा 1882 में और गीत लिखा गया था 1875 में | इसके अलावा 'आनंदमठ' के पहले संस्करण में मूल खलनायक ब्रिटिश थे, मुस्लिम जागीरदार नहीं | मुस्लिम लीग ने अंत तक अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा लेकिन अपनी दुर्बुद्धि वह यही छोड़ गयी |

इस दुर्बुद्धि को हमारी स्वतंत्र भारत की जमियत अपनी छाती से क्यों लगाये हुए है ? यह जमियत इस्लाम के पंडितों, विद्वानों, आलिमों की संस्था है | वह मुस्लिम लीगीयों की तरह कुर्सीप्रेमियों का संगठन नहीं है | उससे उम्मीद की जाती है कि वह सारे मसले पर दुबारा खुलकर सोचे और अपने मुसलमान भाईयों को सही सन्देश दे | वह मुस्लिम लीग के टोटकों की लाशें क्यों ढोए ? उसका मकसद इस्लाम कि खिदमत है न कि मुस्लिम लीग का वारिस बनना | 'वन्दे मातरम्' जैसे नकली मुद्दे कभी के मुस्लिम लीग कि कब्र में सो गए हैं | अब उन्हें फिर जगाने से क्या फायदा ?


[ डॉ. वैद प्रताप वैदिक (दांये) अफगानिस्तान के नेता हामिद करजई के साथ ]


(जैसा की डॉ. वैद प्रताप वैदिक ने अपने एक लेख में बताया |)

6 comments:

  1. डॉ. वैद प्रताप वैदिक ने सही लिखा है | सहमत |

    ReplyDelete
  2. इतिहास गवाह है कि इस्लामिक भावनाओं का सम्मान करते हुए वन्दे मातरम्‌ को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार करते समय उसमें केवल वे ही दो पद आधिकारिक रूप से स्वीकार किये गये थे जिनमें किसी भी प्रकार से मुस्लिम विरोध की भावना की कोई गुंजाइश नहीं थी। पर अगर विरोध करने के लिये विरोध करना ही लक्ष्य हो तो एक कारण न रहे तो न सही, दूसरा कारण ढूंढ लिया जायेगा। यही वन्दे मातरम्‌ के साथ हो रहा है।
    सच तो यह है कि अपने अनुयायियों को भेड़- बकरियों की तरह हांकने की इन फतवेदारों की मनोवृत्ति को उनके खुद के अनुयायी पहचान रहे हैं। गणित और विज्ञान की शिक्षा का विरोध करके इन मजहबी नेताओं ने स्वयं ही बता दिया है कि वह किस अंधे कुएं में बैठे हैं और बाहर निकलने को राजी नहीं हैं। इन मजहबी और राजनीतिक नेताओं के पीछे चलते चलते मुसलमान प्रगति की दौड़ में पिछड़ता चला गया है क्योंकि इन नेताओं की दिलचस्पी वास्तव में केवल अपनी दुकान चलाने में है। और यह दुकान तब तक ही चलती है जब तक ऐसा आभास बना रहे कि आम मुसलमान उनकी बात सुनता और मानता है।


    वास्तविकता के धरातल पर तो ऐसा पहले ही हो चुका है कि फतवे एक सुझाव से अधिक महत्व के नहीं रह गये हैं। फतवों का कितना महत्व होगा, यह सीधे-सीधे इस बात पर निर्भर करता है कि वह फतवा एक आम समझदार नागरिक की बुद्धि में फिट बैठता है या नहीं। यदि कोई मजहबी नेता मुसलमानों को यह आज्ञा दे कि गणित और विज्ञान पढ़ाना बन्द करो, डायनिंग टेबिल पर बैठ कर खाना मत खाओ, टीवी मत देखो, मोबाइल मत प्रयोग करो तो भला ऐसे फतवों का क्या हश्र होगा ? यदि एक आम मुसलमान को लगता है कि ए.आर. रहमान ने वन्दे मातरम्‌ गाया और जन-जन का खूब प्यार और सम्मान अर्जित किया तो एक आम मुसलमान भी वन्दे मातरम्‌ गाने से क्यों परहेज़ करने लगा ? जिसका मन चाहेगा, वन्दे मातरम्‌ गायेगा, खूब गायेगा, डंके की चोट पर गायेगा - वन्दे मातरम्‌ गाने वाले किसी भी मुसलमान का कम से कम भारत में तो ये फतवा विशेषज्ञ कुछ बिगाड़ नहीं पायेंगे।

    ReplyDelete
  3. यदि धार्मिक मान्यताएं राष्ट्रीय प्रतीकों को सम्मान देने में आड़े आती हैं तो वे क्षम्य नहीं हैं.

    ReplyDelete
  4. gyan-vadhak hone ke saath hi vicharniy post.aapkaaalekh kaffi achha laga.
    shubh-kamnaaon ke saath----
    poonam

    ReplyDelete