Tuesday, February 8, 2011

लड़कियां लड़कों से आगे क्यों ?

        हमारे देश में कई वर्षों से इस मौसम की एक ख़ास खबर यह रही है कि बोर्ड की परीक्षाओं में लड़कियां लड़कों से बाज़ी मार ले गयी हैं | इसी तरह उच्चतर शिक्षा और नौकरी-व्यापार के मामले में लड़कियों का लड़कों की बराबरी में पहुंचना समाचार बनता रहता हैं | मानो लड़कियों का किसी भी मामले में लड़कों की बराबरी करना या उन्हें पीछे छोड़ जाना इक्कीसवीं सदी में भी सुर्खी देकर छपने लायक बात हो ! लड़कियों की इस तरक्की पर हम 'पिछड़े' देश के वासियों को थोडा कुतूहल तो होता है लेकिन इतना हम आसानी से समझ जाते हैं कि आज की दुनिया में हमारी बेटियां पढ़-लिखकर अपने पांवों पर खड़ी न हो सकेंगी तो कहीं की न रह जाएँगी | हम 'पिछड़ों' के यहाँ स्त्री की प्रगति का घोरतम विरोधी भी जल-भुन कर केवल इतना कहता है कि ये मॉडर्न लुगाईयाँ तो जी बिस्तरे गरम करके कुर्सियां पा रही हैं | लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन-जैसे 'अगड़े' देशों के दक्षिणपंथी पुरुषों के लिए तो लड़कियों का लड़कों को पटखनी देने का हर समाचार 'स्त्रीवाद-मुर्दाबाद' का नारा बुलंद करने का कारण बनता रहा है | और महान आश्चर्य कि हम 'पिछड़ों' के यहाँ स्त्री की भलाई के मामलों में दक्षिणपंथी दलों की महिलाएं भी वामपंथी महिलाओं का साथ देती हैं वहीँ सबसे 'अगड़े' अमेरिका में स्त्रीवाद को कोसने में दक्षिणपंथी महिलाएं ही सबसे आगे हैं |
        अमेरिकी स्कूल-कॉलेजों में लड़के जिस बुरी तरह लड़कियों के हाथों पिट रहे हैं उतने किसी और देश में नहीं | भौतिकशास्त्र और गणित को छोड़ बाकी सभी विषयों में अमेरिकी स्कूलों कि लड़कियां लड़कों से ज्यादा नबर पाने लगी हैं | खेलकूद को छोड़ बाकी सभी पाठ्यक्रमेतर गतिविधियों में वे लड़कों पर हावी हो चली हैं और पुरस्कार-सम्मान उन्हें ही ज्यादा मिल रहे हैं |
        बोर्ड-परीक्षा जैसी कोई चीज़ तो अमेरिका में होती नहीं लेकिन यह देखा जा रहा है कि हाईस्कूल के बाद जो कुल 40 प्रतिशत बच्चे ऊँची शिक्षा लेते हैं उनमें लड़कियों का अनुपात देखते-ही-देखते 50 प्रतिशत से आगे निकल चुका है | कला संकायों में छात्राओं की संख्या छात्रों से तिगुनी हो गयी है और विज्ञान संकायों में बराबर | बस इंजीनियरी में ही छात्राएं छात्रों के मुकाबले बहुत कम हैं | तो लड़के अब आगे हैं केवल खेलने में, फेल होने में और बाल-अपराधियों के रूप में जेल जाने में |
        इस सिलसिले में अमेरिकी दक्षिणपंथ की प्रभावशाली प्रवक्ता प्रो. सोमर्स का कहना है कि स्त्रीवाद ने लड़कों के लिए लड़का होना एक अभिशाप बना दिया है | स्कूलों में ऐसा वातावरण बनवा दिया है कि लड़का या तो आत्महत्या कर ले या फिर हत्या कर बैठे किसी की | तभी तो स्कूली बच्चों में लड़कियों की अपेक्षा चौगुने लड़के आत्महत्या कर रहे हैं और हत्या करने वालों में वे दस गुने हैं | आप पूछेंगे स्त्रीवादियों ने ऐसा क्या कर दिया है कि अमेरिकी लड़के 'घोर असामाजिक अत्याचार के शिकार' बताये जा रहे हैं ?
        जी एक तो उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में महिला-महिमा भरवा दी है उनके पुरुष-केन्द्रित होने पर विरोध कर करके | वे भाषा तक में से 'मैन' का बोलबाला निकलवाकर रही हैं कि जी चेयरमैन मत पुकारो | बच्चे के मन में यह भावना डलवा रही हैं कि मर्द होना ही गुनाह है | वे लड़कों के लिए यह सन्देश भिजवा रही हैं कि लड़कियों-जैसा बनना सीखें क्योंकि लड़के तो जंगली होते हैं | दुसरे उन्होंने परीक्षाओं में भाषा-ज्ञान सम्बन्धी और अभिव्यक्ति समता पर जोर बढवा दिया है | लड़कियां स्वभावतः भाषा सीखने और निबन्धनुमा उत्तर देने में लड़कों से बेहतर होती हैं, इसलिए लड़के बेचारे पिट रहे हैं |
        'सही जवाब पर सही का निशान लगाओ' पद्धति से बच्चों के 'ज्ञान' की परीक्षा लीजिये न, भाषा में ज्ञान में परीक्षा क्यों लेते हैं ? इसलिए कि लड़कों के मन बैठा दें कि तुम पढाई के मामले में लड़कियों से कमतर हो ? 'होम वर्क' पर जोर बढाकर भी यही लक्ष्य सिद्ध किया जा रहा है क्योंकि चंचल लड़कों का मन घर जाकर खेलने का होता है लड़कियों की तरह शाबाशी पाने कि खातिर फिर कापी-किताब लेकर बैठ जाने का नहीं | तो हमारे बालकों के लिए स्कूली सफलता पूरी तरह 'जनाना' चीज़ बन चली है और जैसे कभी पढ़ाकू लड़की अन्य लड़कियों के लिए परिहास का पत्र बनती थी, वैसे अब हमारे पढ़ाकू बालक बन रहे हैं |
        दक्षिणपंथियों के अनुसार, स्त्रीवादियों ने सबसे बड़ा जुल्म यह किया कि छात्रों के हाथो छात्राओं के सताए जाने का शोर मचा-मचा कर अनुशासन सख्त करवा दिया | दुर्भाग्य से अब स्कूलों में भी अब अध्यापिकाओं का ही बोलबाला है और उनका नजरिया पूरी तरह स्त्रीवादी है | वे हर लड़के में स्त्री पर अत्याचार करता आया पुरुष देखती हैं इसलिए थोड़ी-सी शरारत या छेड़छाड़ करने पर उन्हें कठोर सजा देती हैं | लड़कों को प्रकृति ने ही लड़ाकू और शरारती बनाया है | किशोरावस्था में कदम रखते ही उनके हार्मोन उन्हें सेक्स-सुख भोग के लिए उकसाते हैं और इसी के चलते वे लड़कियों के पीछे पड़ते हैं | जो कुदरती है उसे वहशी ठहराना, उसके लिए लड़कों को दण्डित करना उनके स्वाभिमान की हत्या करना है | इस सिलसिले में दक्षिणपंथी बिरादरी प्राइमरी स्कूलों की अध्यापिकाओं को विशेष रूप से कोस रही हैं | छुटपन में लड़कियों का मानसिक विकास लड़कों से ज्यादा तेजी से होता है जिसका लाभ उठाकर वे रोजाना बेचारे बालकों को बुद्धू-बुद्धू कह कर बुद्धू ही बना देती हैं |
        लड़कों को 'बधिया करने का या स्त्रीवादी प्रयास' ही दक्षिणपंथियों के अनुसार लड़कों का और समाज का बंटाधार करवा रहा है | वामपंथी कह रहे हैं कि लड़कों को यह सिखाना जरुरी है कि आज की दुनिता में कोई मर्दानगी किसी काम की नहीं है | मेड इन मुक्तमंडी मर्द उसका भी रोना रो रहे हैं और सारी आधुनिकता को ही नकार देने के अभियान में जुट गए हैं | शायद इसिलए वे मांग कर रहे हैं कि लड़कों के लिए अलग स्कूल खुलें जिनमें केवल पिता-प्रतीक पुरुष ही पढ़ायें |
(16 जून, 2003)
- प्रस्तुत लेख 'मनोहर श्याम जोशी' (या यह देखें ) की पुस्तक 'आज का समाज' से उद्धृत है |
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