"आप लोगों को कोई मजबूर नहीं कर रहा है कि आप हनी सिंह के गाने सुने। फालतू में हल्ला क्यों मचा रहे हैं आप लोग?"
हर आदमी को रेशनल हो चाहिए, तार्किक होना चाहिए । समाज और समझ के विकास के लिए जरुरी भी है । पर आम आदमी के हक़ का, देश का पानी चूस कर, एक रुपए वाली पेप्सी को दस रुपए में बेचने के लिए लोगों को चुतिया बनाने के लिए कंपनी का अधिकारी विज्ञापन में अपने सुपुत्र को थोड़ी सी पेप्सी पिलाने के अफंड रचता है तो क्या वो रेशनल या तार्किक या नयी सोच वाला या मुखर आदमी बन गया है ? ज़ाकिर नायक जैसे जोकर रोज़ तर्कों का चिकन बनाते हैं तो क्या कश्यप आप उनके फेन बन जायेंगे, मेरा अंदाज़ा है आप नहीं बनेगे । कितनी सही बात है ये कि 'तर्क से सिरजन नहीं हो पाता' ( धन्यवाद @सनातन कालयात्री उर्फ़ गिरिजेश राव 'आलसी')।
कश्यप, आप युवाओं को डराना और किशोरों को मुखर बनाना बंद करो कम से कम ऐसे बेतुके तुको को इस्तेमाल करके । जिस तरह एक राष्ट्रपति का बेटा आम आदमी की तरह बात नहीं कर सकता, क्योंकि उनके ताकतवर अधिकार उनको कर्तव्यों में रहने को बाध्य बनाते हैं । वैसे ही अच्छे साहित्यकार की जिम्मेदारी होती है कि समाज को 'सही दिशा' में ले जाने का प्रयास करे, सही-गलत का पैमाना निश्चित करना कितना कठिन या असम्भव है क्या आप भी ये नहीं जानते ।
"आप लोगों को कोई मजबूर नहीं कर रहा है कि आप हनी सिंह के गाने सुने। फालतू में हल्ला क्यों मचा रहे हैं आप लोग?"
मुझे याद नहीं गाना गाने और गाना सुनने को कभी किसी ने किसी को मजबूर किया हो । आंतकवादियों को छोड़कर कम से कम शारीरिक यातना द्वारा तो कभी किसी को नहीं । पर आप नहीं जानते क्या कि समाज में रहने की शुरुआत ही मज़बूरी है । आदि काल से ही मानव को समाज बनाने की जरुरत ही इसलिए पड़ी कि वो अपनी आवश्यकताओं को और ज्यादा सहूलियत से निपटा सके । एक दुसरे की सहायता करने और जरुरत में उसकी सहायता पाने की मज़बूरी समझ सकते हैं इसे आप । और इसीलिए कुछ बातों को लेकर हमें को-ओपरेट करना ही पड़ता है, समाज का ढ़ांचा ही ऐसा है कि थोडा बहुत सहना ही पड़ता है । अमरीका, जहाँ का माहौल चाहे जितना मुखर हो पर विवाहेत्तर संबंधों के चलते राष्ट्रनेता को भी लोगो की नज़रो और कुर्सी दोनों से उतरना पड़ता है । ये है समाज में रहने की मज़बूरी । अगर समाज की नेतागिरी करनी है तो उसके कायदों से खुद को थोडा बांधना भी मज़बूरी है ।
हर रोज़, हर कोई चाहता है अपनी तरह का समाज बनाना । शायद इसीलिए लोग एक कमरे में सिमटे जा रहे हैं, दूर हो जा रहे एक दुसरे से । आप भी चले जाईये, चुपचाप एक कमरे में जाकर बैठ सकते हैं । पर तब आप उसी समाज ये अपेक्षा न रखें कि वो आपके उत्पाद खरीदें । जब आपको खरीददार कम मिलेंगे तब आपका वही पुराना राग शुरू होगा "मैं सार्थक चीज़ बनाता हूँ, बोलीवुड नहीं बनाता" और ये टीस जाहिर करता था किसी समय आपकी।
जानते हैं, हम समाज की जरुरत ताकतवर शेरों के मुकाबले कमजोर-मजबूर भेड़ियों को ज्यादा होती है, अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए । आज का समाज अर्थ प्रधान है । तो आज जितना धन जिसके पास वह उतना ही ताकतवर शेर । लगता है अब आप आज के शेर बनने की और है तो आपको अब समाज की जरुरत नहीं, ये कोई मेरा जलन वाला कथन भी नहीं । मेरे जैसे अनजान-आम आदमी को आपसे क्योकर इर्ष्या होगी, बिलकुल नहीं है । मैं यह भी नहीं कहूँगा कि मैं दुखी हूँ क्योंकि आपसे लगाव था/है । पर मुझे कहना है इसलिए कि, आपके इस कथन से या तर्क से :
"आप लोगों को कोई मजबूर नहीं कर रहा है कि आप हनी सिंह के गाने सुने। फालतू में हल्ला क्यों मचा रहे हैं आप लोग?"
मुझे गुस्सा आता है । अब मैं ये तर्क दूंगा कि हनी सिंह का गाना उस लड़की ने भले ही अपनी इच्छा से नकार दिया हो पर वह उसी समाज में थी जहाँ कुछ दुसरे लोग उसी हनी-फन्नी को स्वीकार भी करते है । रोज़ अपने चाईनीज़ मोबाईल पर एक नयी पोर्न फ़िल्म देखते हैं, दारू पीते हैं, और प्लान बनाकर निकलते हैं कि आज किस लड़की के साथ बाँडेज टाईप ब्लू फिल्म का सीन दोहराना है । और आखिर में किसी टिंटेड ग्लास वाली बस में चलते हुए वे हार्ड कोर बलात्कार कर गुजरते हैं । कोई लड़की यदि, हन्नी बन्नी सन्नी जो भी है, उसकी विरोधी भले ही रही, सन्नी लियोन की विरोधी भले रही हो, आपके ऐसे उत्पाद की उपभोक्ता न बनी हो । पर, पर बलात्कार करवाने और मरने के लिए मजबूर हुयी आप जैसे हन्नी-लियोन समर्थकों की वजह से । तो अनुराग अब आप उस बलात्कार के जिम्मेदार माने जायेंगे । अब शायद आप कहेंगे कि ये क्या बकवास है ? यह तर्कों की बकवास ही है, जिसकी शुरुआत आपने छेड़ी है । ये है समाज में रहने की मज़बूरी ।
मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आप इस तथ्य को समझते है । पर कभी निरर्थक सिनेमा को गरियाने वाले आप जैसे लोग आज दो-चार निरर्थक लाईनों के लिए ढाल बनने का प्रयास करते दीखते हैं, वो भी ऐसे नाज़ुक समय पर जब एक न्याय के लिए लोग ताकत लगा रहे हैं, कभी कभार ये लोग जागते हैं और आप उनको निरुत्साहित कर रहे हैं । तो मेरे जैसे फेनाटिक को भी यह बात, रेडिकल / क्रांतिकारी कम और दो पैसे ज्यादा कमाने का लोभ ज्यादा लगती है, क्योंकि आप का 'शैतान' बहार आने वाला है, कि कहीं बिक्री पर असर ना पड़ जाए । नाम और यश तो अब आप भूल ही जाईये ।
कोई श्रीमान साज़िद कहते है कि 'मेरे गाने को कोई अश्लील सिद्ध कर दे तो मैं गाने बनाना ही छोड़ दूंगा ।'
समझ में नहीं आता कि ये किसको डरा रहे हैं । मैं कहता हूँ श्रीमान साज़िद आप मेरे सामने आ जाएँ, और श्लील ही सिद्ध करके बता दें । मैं तर्कों में आपसे जीतूँगा नहीं तो आपसे हारूँगा भी नहीं । अंतहीन होती हैं ऐसी बहसें । निश्चित ही ये महानुभाव प्रातः काल नियमित रूप से बिना नागा किये 'जोकर नायक' के स्पीच पीते हैं । क्या ये मुझे बताने का कष्ट करेंगे कि श्लील और अश्लील की सीमा कैसे तय होती है, कहाँ तलक जाती है ? यह सबके लिए एक समान नहीं होती । पर फिर भी समाज में एक समान बनानी पड़ती है । सबको एक ही लाठी से हाँकना लोकतंत्र की एक कमी है, और सौ प्रतिशत शुद्ध युटोपिया तन्त्र कोई गढ़ ही नहीं सकता । ये समाज में रहने की मज़बूरी है ।
क्या हम नहीं जानते कि होली गीत, धमाल, जोगीड़े या अन्य लोकगीत तक सदा से अश्लील शब्दों का प्रयोग करते आये हैं, पर इन गानों की परिणिति भी कभी बलात्कार पर ख़त्म हुई हो, ये मैंने तो नहीं देखा । यही वो टाईट्रेशन वाला हल्का-महीन गुलाबी फर्क था भारत और इण्डिया वाला । जिसको आप जैसे बुद्धिजीवी बिना मतलब के, बिना सारगर्भिता के ठलुआगिरी के लिए, 'अ'पढाई के समय मीडिया के गंदे नाले में सोडियम के लड्डू बनाकर फेंकते हैं, हल्का प्रचार पाने के लिए । शब्दों से खेलते हैं और बच्चों के उछलने को मनोरंजन बना पेश करके पैसे कमाते हैं । बस दो पैसे के लिए इस समय न्याय के इस नाज़ुक मोड़ को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं आप । अक्षय और सलमान की फ़िल्में देखने जाओ तो दिमाग घर पर रखकर जाओ । कितने सीधे हैं ये लोग जो कह तो दे रहे है कि हमने दिमाग वालों के लिए फिल्म ही नहीं बनाई । पर कश्यप आप तो इनसे भी गये-बीते निकले । आप चाहते है कि हमारे टिकट के पैसे ख़राब होने के बाद में हमें पता चले कि कश्यप भी बिना दिमाग वाली फ़िल्में बनाने लग गए है । मैं क्यों समझा रहा हूँ, यही कि या तो आप खुद को साहित्यकार / कलाकार मानना बंद करें क्योंकि उसका काम समाज को 'उचित तरीके' से रास्ता दिखाना होता है न कि चूतिया बनाकर अपने उत्पाद बेचने का । इस तरह के कथन से तो मैं यही समझूंगा की आप में और दाग अच्छे बताकर घटिया डिटर्जेंट बेचने वाले में कोई फर्क नहीं है । इन कमीनों को कहूँगा कि जाकर किसी नरक दलदल में कूदें, भर-भरके अच्छाई इकट्ठी कर लें, काम आएँगी किसी दिन बुराई धोने के लिए ।
क्या खूब कहा है हमारे डाक्टर साहब (@डॉ. अनुराग आर्य) ने, "चालीस साल तक गुमनामी में सामानांतर सिनेमा बनाने वाले हमारे कई महान कलाकारों ने भी अपना धैर्य पूंजीवाद की आंधी के आगे नहीं खोया । आप जैसे चार-पाँच साल में ही भ्यां बोल गए ( मैदान छोड़ जा रहे हैं ) ।" गांधीगिरी वाले हिरानी जी और थ्री इडियट वाले आमिर की तरह Please, Don't try to get smart with us to sell your fucking products. आप कैसे मान सकते हैं कि आप जैसे स्मार्ट आदमी के फेन पूरे लुनाटिक ही होंगे । लुनाटिक लोग आपके फेन कभी बनते भी नहीं ।
क्या जरुरत थी आपको इन लपुझन्नों को डिफेंड करने के लिए उतरने की । अगर आप चुप भी रहते तो आपकी गरिमा पर कोई भी कल सवाल नहीं उठाने वाला था कि आप क्यों नही बोले, कहीं कोई जरुरत न थी । पर आपने फिर भी पीक मार ही दी । फेन सचिन और द्रविड़ के भी है तथा धोनी और कोहली के भी । पर सचिन व द्रविड़ को, जो उनके फेन नहीं हैं वो लोग भी निकृष्ट नहीं मानते, फेन लोगों के मन में तो स्वाभाविक ही सचिन-द्रविड़ के लिए भगवान जैसी श्रद्धा है जो 'उन' पुछल्लों को कभी नहीं मिलने वाली । सफलता के साथ विनम्रता भी आनी जरुरी है । ए. आर. रहमान भी सफल हैं, ऊँचाई पर है पर उछलते नहीं, 'पीक' पर जाकर नशे में पीकते नहीं, पींगते नहीं । हिमेश रेशमिया जैसे चार महीने ही पींग सके, टोपी-ओवरकोट के शाही नखरे दिखाए, हेलीकाप्टर से उतरे और बस, फिर कभी चढ़ने लायक बचे नहीं ।
पैसे ही समस्या है तो, मैं तो एक सलाह और दूंगा कि आप और ज्यादा खुले में आ जाईये । हन्नी सिंह को एक कण्डोम बेचने के विज्ञापन में गायकी के साथ अभिनय का मौका भी दें । विज्ञापन का सारा स्टोरी-बोर्ड आप लिखें । आप आजकल 'नयी विचारधारा' ला रहे हैं लघु फ़िल्में रिलीज़ करने की, जमीनी स्तर पर युवाओं को मौका देने की, छोडिये उनका भी झंझट । उससे भी लघु यह विज्ञापन होगा और दावे से कहता हूँ खूब बिकेगा, लाखों लोग चाईनीज़ मोबाईल पर बजायेंगे । खूब पैसे बनायेंगे आप, यूट्यूब पर दीजिये, ब्लॉग बनाईये उस पर वेब-पेज हिट का पैसा कमाईये, जबरदस्त फ्रीलांस पार्ट टाईम होगा ये । पर तब आपके लिए कोई फेन नहीं होगा, फेनाटिक जरुर मिल जायेंगे ।
-योगेन्द्र
हर आदमी को रेशनल हो चाहिए, तार्किक होना चाहिए । समाज और समझ के विकास के लिए जरुरी भी है । पर आम आदमी के हक़ का, देश का पानी चूस कर, एक रुपए वाली पेप्सी को दस रुपए में बेचने के लिए लोगों को चुतिया बनाने के लिए कंपनी का अधिकारी विज्ञापन में अपने सुपुत्र को थोड़ी सी पेप्सी पिलाने के अफंड रचता है तो क्या वो रेशनल या तार्किक या नयी सोच वाला या मुखर आदमी बन गया है ? ज़ाकिर नायक जैसे जोकर रोज़ तर्कों का चिकन बनाते हैं तो क्या कश्यप आप उनके फेन बन जायेंगे, मेरा अंदाज़ा है आप नहीं बनेगे । कितनी सही बात है ये कि 'तर्क से सिरजन नहीं हो पाता' ( धन्यवाद @सनातन कालयात्री उर्फ़ गिरिजेश राव 'आलसी')।
कश्यप, आप युवाओं को डराना और किशोरों को मुखर बनाना बंद करो कम से कम ऐसे बेतुके तुको को इस्तेमाल करके । जिस तरह एक राष्ट्रपति का बेटा आम आदमी की तरह बात नहीं कर सकता, क्योंकि उनके ताकतवर अधिकार उनको कर्तव्यों में रहने को बाध्य बनाते हैं । वैसे ही अच्छे साहित्यकार की जिम्मेदारी होती है कि समाज को 'सही दिशा' में ले जाने का प्रयास करे, सही-गलत का पैमाना निश्चित करना कितना कठिन या असम्भव है क्या आप भी ये नहीं जानते ।
"आप लोगों को कोई मजबूर नहीं कर रहा है कि आप हनी सिंह के गाने सुने। फालतू में हल्ला क्यों मचा रहे हैं आप लोग?"
मुझे याद नहीं गाना गाने और गाना सुनने को कभी किसी ने किसी को मजबूर किया हो । आंतकवादियों को छोड़कर कम से कम शारीरिक यातना द्वारा तो कभी किसी को नहीं । पर आप नहीं जानते क्या कि समाज में रहने की शुरुआत ही मज़बूरी है । आदि काल से ही मानव को समाज बनाने की जरुरत ही इसलिए पड़ी कि वो अपनी आवश्यकताओं को और ज्यादा सहूलियत से निपटा सके । एक दुसरे की सहायता करने और जरुरत में उसकी सहायता पाने की मज़बूरी समझ सकते हैं इसे आप । और इसीलिए कुछ बातों को लेकर हमें को-ओपरेट करना ही पड़ता है, समाज का ढ़ांचा ही ऐसा है कि थोडा बहुत सहना ही पड़ता है । अमरीका, जहाँ का माहौल चाहे जितना मुखर हो पर विवाहेत्तर संबंधों के चलते राष्ट्रनेता को भी लोगो की नज़रो और कुर्सी दोनों से उतरना पड़ता है । ये है समाज में रहने की मज़बूरी । अगर समाज की नेतागिरी करनी है तो उसके कायदों से खुद को थोडा बांधना भी मज़बूरी है ।
हर रोज़, हर कोई चाहता है अपनी तरह का समाज बनाना । शायद इसीलिए लोग एक कमरे में सिमटे जा रहे हैं, दूर हो जा रहे एक दुसरे से । आप भी चले जाईये, चुपचाप एक कमरे में जाकर बैठ सकते हैं । पर तब आप उसी समाज ये अपेक्षा न रखें कि वो आपके उत्पाद खरीदें । जब आपको खरीददार कम मिलेंगे तब आपका वही पुराना राग शुरू होगा "मैं सार्थक चीज़ बनाता हूँ, बोलीवुड नहीं बनाता" और ये टीस जाहिर करता था किसी समय आपकी।
जानते हैं, हम समाज की जरुरत ताकतवर शेरों के मुकाबले कमजोर-मजबूर भेड़ियों को ज्यादा होती है, अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए । आज का समाज अर्थ प्रधान है । तो आज जितना धन जिसके पास वह उतना ही ताकतवर शेर । लगता है अब आप आज के शेर बनने की और है तो आपको अब समाज की जरुरत नहीं, ये कोई मेरा जलन वाला कथन भी नहीं । मेरे जैसे अनजान-आम आदमी को आपसे क्योकर इर्ष्या होगी, बिलकुल नहीं है । मैं यह भी नहीं कहूँगा कि मैं दुखी हूँ क्योंकि आपसे लगाव था/है । पर मुझे कहना है इसलिए कि, आपके इस कथन से या तर्क से :
"आप लोगों को कोई मजबूर नहीं कर रहा है कि आप हनी सिंह के गाने सुने। फालतू में हल्ला क्यों मचा रहे हैं आप लोग?"
मुझे गुस्सा आता है । अब मैं ये तर्क दूंगा कि हनी सिंह का गाना उस लड़की ने भले ही अपनी इच्छा से नकार दिया हो पर वह उसी समाज में थी जहाँ कुछ दुसरे लोग उसी हनी-फन्नी को स्वीकार भी करते है । रोज़ अपने चाईनीज़ मोबाईल पर एक नयी पोर्न फ़िल्म देखते हैं, दारू पीते हैं, और प्लान बनाकर निकलते हैं कि आज किस लड़की के साथ बाँडेज टाईप ब्लू फिल्म का सीन दोहराना है । और आखिर में किसी टिंटेड ग्लास वाली बस में चलते हुए वे हार्ड कोर बलात्कार कर गुजरते हैं । कोई लड़की यदि, हन्नी बन्नी सन्नी जो भी है, उसकी विरोधी भले ही रही, सन्नी लियोन की विरोधी भले रही हो, आपके ऐसे उत्पाद की उपभोक्ता न बनी हो । पर, पर बलात्कार करवाने और मरने के लिए मजबूर हुयी आप जैसे हन्नी-लियोन समर्थकों की वजह से । तो अनुराग अब आप उस बलात्कार के जिम्मेदार माने जायेंगे । अब शायद आप कहेंगे कि ये क्या बकवास है ? यह तर्कों की बकवास ही है, जिसकी शुरुआत आपने छेड़ी है । ये है समाज में रहने की मज़बूरी ।
मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आप इस तथ्य को समझते है । पर कभी निरर्थक सिनेमा को गरियाने वाले आप जैसे लोग आज दो-चार निरर्थक लाईनों के लिए ढाल बनने का प्रयास करते दीखते हैं, वो भी ऐसे नाज़ुक समय पर जब एक न्याय के लिए लोग ताकत लगा रहे हैं, कभी कभार ये लोग जागते हैं और आप उनको निरुत्साहित कर रहे हैं । तो मेरे जैसे फेनाटिक को भी यह बात, रेडिकल / क्रांतिकारी कम और दो पैसे ज्यादा कमाने का लोभ ज्यादा लगती है, क्योंकि आप का 'शैतान' बहार आने वाला है, कि कहीं बिक्री पर असर ना पड़ जाए । नाम और यश तो अब आप भूल ही जाईये ।
कोई श्रीमान साज़िद कहते है कि 'मेरे गाने को कोई अश्लील सिद्ध कर दे तो मैं गाने बनाना ही छोड़ दूंगा ।'
समझ में नहीं आता कि ये किसको डरा रहे हैं । मैं कहता हूँ श्रीमान साज़िद आप मेरे सामने आ जाएँ, और श्लील ही सिद्ध करके बता दें । मैं तर्कों में आपसे जीतूँगा नहीं तो आपसे हारूँगा भी नहीं । अंतहीन होती हैं ऐसी बहसें । निश्चित ही ये महानुभाव प्रातः काल नियमित रूप से बिना नागा किये 'जोकर नायक' के स्पीच पीते हैं । क्या ये मुझे बताने का कष्ट करेंगे कि श्लील और अश्लील की सीमा कैसे तय होती है, कहाँ तलक जाती है ? यह सबके लिए एक समान नहीं होती । पर फिर भी समाज में एक समान बनानी पड़ती है । सबको एक ही लाठी से हाँकना लोकतंत्र की एक कमी है, और सौ प्रतिशत शुद्ध युटोपिया तन्त्र कोई गढ़ ही नहीं सकता । ये समाज में रहने की मज़बूरी है ।
क्या हम नहीं जानते कि होली गीत, धमाल, जोगीड़े या अन्य लोकगीत तक सदा से अश्लील शब्दों का प्रयोग करते आये हैं, पर इन गानों की परिणिति भी कभी बलात्कार पर ख़त्म हुई हो, ये मैंने तो नहीं देखा । यही वो टाईट्रेशन वाला हल्का-महीन गुलाबी फर्क था भारत और इण्डिया वाला । जिसको आप जैसे बुद्धिजीवी बिना मतलब के, बिना सारगर्भिता के ठलुआगिरी के लिए, 'अ'पढाई के समय मीडिया के गंदे नाले में सोडियम के लड्डू बनाकर फेंकते हैं, हल्का प्रचार पाने के लिए । शब्दों से खेलते हैं और बच्चों के उछलने को मनोरंजन बना पेश करके पैसे कमाते हैं । बस दो पैसे के लिए इस समय न्याय के इस नाज़ुक मोड़ को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं आप । अक्षय और सलमान की फ़िल्में देखने जाओ तो दिमाग घर पर रखकर जाओ । कितने सीधे हैं ये लोग जो कह तो दे रहे है कि हमने दिमाग वालों के लिए फिल्म ही नहीं बनाई । पर कश्यप आप तो इनसे भी गये-बीते निकले । आप चाहते है कि हमारे टिकट के पैसे ख़राब होने के बाद में हमें पता चले कि कश्यप भी बिना दिमाग वाली फ़िल्में बनाने लग गए है । मैं क्यों समझा रहा हूँ, यही कि या तो आप खुद को साहित्यकार / कलाकार मानना बंद करें क्योंकि उसका काम समाज को 'उचित तरीके' से रास्ता दिखाना होता है न कि चूतिया बनाकर अपने उत्पाद बेचने का । इस तरह के कथन से तो मैं यही समझूंगा की आप में और दाग अच्छे बताकर घटिया डिटर्जेंट बेचने वाले में कोई फर्क नहीं है । इन कमीनों को कहूँगा कि जाकर किसी नरक दलदल में कूदें, भर-भरके अच्छाई इकट्ठी कर लें, काम आएँगी किसी दिन बुराई धोने के लिए ।
क्या खूब कहा है हमारे डाक्टर साहब (@डॉ. अनुराग आर्य) ने, "चालीस साल तक गुमनामी में सामानांतर सिनेमा बनाने वाले हमारे कई महान कलाकारों ने भी अपना धैर्य पूंजीवाद की आंधी के आगे नहीं खोया । आप जैसे चार-पाँच साल में ही भ्यां बोल गए ( मैदान छोड़ जा रहे हैं ) ।" गांधीगिरी वाले हिरानी जी और थ्री इडियट वाले आमिर की तरह Please, Don't try to get smart with us to sell your fucking products. आप कैसे मान सकते हैं कि आप जैसे स्मार्ट आदमी के फेन पूरे लुनाटिक ही होंगे । लुनाटिक लोग आपके फेन कभी बनते भी नहीं ।
क्या जरुरत थी आपको इन लपुझन्नों को डिफेंड करने के लिए उतरने की । अगर आप चुप भी रहते तो आपकी गरिमा पर कोई भी कल सवाल नहीं उठाने वाला था कि आप क्यों नही बोले, कहीं कोई जरुरत न थी । पर आपने फिर भी पीक मार ही दी । फेन सचिन और द्रविड़ के भी है तथा धोनी और कोहली के भी । पर सचिन व द्रविड़ को, जो उनके फेन नहीं हैं वो लोग भी निकृष्ट नहीं मानते, फेन लोगों के मन में तो स्वाभाविक ही सचिन-द्रविड़ के लिए भगवान जैसी श्रद्धा है जो 'उन' पुछल्लों को कभी नहीं मिलने वाली । सफलता के साथ विनम्रता भी आनी जरुरी है । ए. आर. रहमान भी सफल हैं, ऊँचाई पर है पर उछलते नहीं, 'पीक' पर जाकर नशे में पीकते नहीं, पींगते नहीं । हिमेश रेशमिया जैसे चार महीने ही पींग सके, टोपी-ओवरकोट के शाही नखरे दिखाए, हेलीकाप्टर से उतरे और बस, फिर कभी चढ़ने लायक बचे नहीं ।
पैसे ही समस्या है तो, मैं तो एक सलाह और दूंगा कि आप और ज्यादा खुले में आ जाईये । हन्नी सिंह को एक कण्डोम बेचने के विज्ञापन में गायकी के साथ अभिनय का मौका भी दें । विज्ञापन का सारा स्टोरी-बोर्ड आप लिखें । आप आजकल 'नयी विचारधारा' ला रहे हैं लघु फ़िल्में रिलीज़ करने की, जमीनी स्तर पर युवाओं को मौका देने की, छोडिये उनका भी झंझट । उससे भी लघु यह विज्ञापन होगा और दावे से कहता हूँ खूब बिकेगा, लाखों लोग चाईनीज़ मोबाईल पर बजायेंगे । खूब पैसे बनायेंगे आप, यूट्यूब पर दीजिये, ब्लॉग बनाईये उस पर वेब-पेज हिट का पैसा कमाईये, जबरदस्त फ्रीलांस पार्ट टाईम होगा ये । पर तब आपके लिए कोई फेन नहीं होगा, फेनाटिक जरुर मिल जायेंगे ।
-योगेन्द्र